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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ]
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श्रेष्ठ हाथी को ( प्राहिणोद्) भेज दिया । (सत्यं ) वस्तुत: ( श्रासन्नभव्यानां ) प्रसन्न भव्य जीवों का (कोपो ) क्रोध (स्थिरो न एव भवेत् ) निश्चय से स्थिर नही रहता है ।
भावार्थ - ऐसा कहकर श्रीपाल महाराज ने अपने श्रेष्ठ हाथी को राजा प्रजापाल के पास भेज दिया । यहाँ श्रीपाल महाराज के भद्र परिणाम को दृष्टि में रखकर प्राचार्य कहते हैं। अल्प काल में ही मोक्ष जाने वाले हैं उनका क्रोध स्थिर नहीं अथवा जल में खींची लकीर के समान चित्त में उत्पन्न ोध की
है,
कि जो आसन्न भव्य जीव रहता है। शीघ्र ही बालू में रेखा मिट जाती है ।
ततस्सोऽपि प्रजापालो राजा हृष्टः स्वमानसे । प्रोत्तुङ्ग गजमारुह्य चामरादि विभूतिभिः ।। १६८ ।। पुरान्निर्गत्य वेगेन समागत्य सुभक्तितः । श्रीपाल सज्जनं दृष्ट्वा सामालिड्य परस्परम् १६६ ॥ महादरं प्रहर्षेण कृत्वा संभाषणं शुभम् । सन्तुष्टी तो तथा गाढ़ सज्जनं परिवारितौ ॥ १७० ॥
श्रन्वयार्थ - ( ततः ) तदनन्तर (स्वमानसे) अपने मन
( हृष्टः ) प्रसन्न हुआ ( सो प्रजापालो राजा अपि) वह प्रजापाल राजा भी ( चामरादि विभूतिभिः ) चामरादि विभूतियों के साथ (प्रोत्तुङ्गगजमारुह्य ) विशाल हाथी पर चढ़कर ( पुरात् बेगेन निर्गत्य ) नगर से वेग के साथ निकल कर ( समागत्य ) वहाँ पहुँच कर (सज्जनं श्रीपालं हष्ट्वा ) श्रेष्ठ पुरुष श्रीपाल को देखकर ( सुभक्तितः ) अति भक्ति पूर्वक ( परस्परं समालिङ य ) परस्पर सम्यक् प्रकार आलिङ्गन कर ( प्रहर्षेण ) प्रत्यन्त हथ से ( महावरं शुभं संभाषणं कृत्वा ) प्रति श्रादर पूर्वक शुभ संभाषण कर सज्जनः परिवारितो ) सज्जनों से परिवृत घिरे हुए ( तदा) उस समय (तो) वे दोनों यर्थात् प्रजापाल राजा और महाराजा श्रीपाल (गाढं सन्तुष्टी) अत्यन्त सन्तुष्ट हुए ।
भावार्थ - तदनन्तर वह प्रजापाल राजा भी मन में बहुत प्रसन्न और चामरादि विभूतियों के साथ विशाल हाथी पर चढ़कर नगरी से बाहर निकला और महाराजा श्रीपाल के पास शीघ्र ही पहुँच गया तथा प्रति भक्ति से श्रीपाल को देखकर गाढ़ आलिंगन कर विनय और हर्ष के साथ शुभ संभाषण कर बहुत सन्तुष्ट हुआ सज्जनों से घिरे हुए वे दोनों अति प्रसन्न हुए। उनका समागम परमानन्द को उत्पन्न करने वाला था ।
श्रीपालः श्वसुरं प्राह श्रृण त्वं भूपते ध्रुवम् । सिद्धचक्रप्रसादेन सर्व सिद्धमिदं मम ।। १७१ ॥
भन्वयार्थ - - ( श्रीपाल : ) श्रीपाल ने ( श्वसुरं प्राह ) श्वसुर को कहा ( भूपते ! ) हे