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॥ अथ सप्तम परिच्छेदः ॥
अथ तत्र स्थितस्सौख्य मुज्जयिन्यां महापुरि । स श्रीपाली महाराजो चिन्तयामास चेतसि ॥ १ ॥ अन्वयार्थ - ( अथ ) इसके बादें (तत्र ) वहाँ ( महापुरि उज्जयिन्यां ) महान नगरी उज्जयिनी में ( सौख्यं स्थितः ) सुखपूर्वक ठहरे हुए ( स श्रीपाल महाराजो) उन महाराज श्रीपाल ने ( चेतसि ) मन में ( चिन्तयामास ) विचार किया कि
एकवासी नवेल्लोके वः भुत्रो क्षत्रियोद्भवः । गृहीतं स्वपितुः स्थानं शत्रुणा प्राणहारिणा ॥२॥ नैव गृह, जाति मूढात्मा सामर्थ्य सति भूतले । तस्य किं जीवितेनात्र चञ्च्या पुरुषवद्धुवम् ।।३।
अन्वयार्थ - ( लोके) लोक में (यः) जो (क्षत्रियोद्भः पुत्रो) क्षत्रिय वंश में उत्पन्न पुत्र ( भवेत् ) है ( असौ ) वह (एकदा) क्वचित् (प्राणहारिणा शत्रुरगा) प्राणहारी शत्रु के द्वारा (गृहीत) ग्रहण किये गये ( स्वपितुः स्थानं ) अपने पिता के स्थान वा पद को ( भूतले सामथ्र्यसति) पृथ्वी पर सामर्थ्यशील होने पर ( न गृह णाति ) नहीं ग्रहण करता है तो (महात्मा एव) मूढात्मा ही है (त्र व चञ्च्चापुरुषवत ) निश्चय से पराई सम्पत्ति का भोग करने वाले चवा पुरुष के समान (तस्य जीवितेन ) उसके जीवन से ( अत्र ) यहाँ (किम ) क्या प्रयोजन है अर्थात् उसका जीवन व्यर्थ है ।
भावार्थ - तदनन्तर सुख पूर्वक उस उज्जयिनी नगरी में रहते हुए श्रीपाल महाराज इस प्रकार विचार करने लगे कि लोक में जो क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुआ पुत्र है वह प्राणहारी बलिष्ठ शत्रु के द्वारा भी ग्रहण किये गये अपने पिता के पद को अवश्य प्राप्त कर लेता है यदि नहीं पाता है और प्रमादी होकर पराई वस्तु को भोगता है तो चञ्च्वा पुरुष के समान उसका जीवन व्यर्थ है । पृथ्वी पर सामर्थ्यवान् होने पर भी यदि वह अपने पिता के पद को पाने के लिये प्रयत्न नहीं करता है तो उसके जीवन से क्या प्रयोजन है ? अतः क्षत्रिय कुल में उत्पन्न और कोटिभट होकर भी यदि मैं अपने पिता के राज्य को पाने के लिये प्रयत्न न करू और श्वसुर के राज्य में पराई सम्पत्ति का भोग करू तो मेरे इस जीवन से क्या प्रयोजन ? अत: अवश्य ही शीघ्र अतिशीघ्र अपने पिता के राज्य को पाने के लिये मुझे प्रयत्न करना हो चाहिए ।