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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ।
मृते पितरि पुत्रो यः स्वयंशं नैवचोद्धरेत् । स पुत्रः केवलं मातुः कृमिवद् वेदनाकरः ||४||
यः करोति कुलोद्योतं पौरुषेष सो भवेत् । स एव संभवेल्लोके सुपुत्रः कुलवोपकः ||५||
अन्वयार्थ – (च) और भी ( पितरि मृते ) पिता की मृत्यु हो जाने पर (यः) जो (पुत्री) पुत्र ( स्ववंशं) अपने कुल को ( न उद्धरेत) समुद्धत नहीं करता है, उद्धार नहीं करता है ( स पुत्रः ) वह पुत्र ( कृमिवद ) कोड़े की समान ( मातुः वेदनाकर एव ) माता के लिये वेदनाकारी ही है (लोके) लोक में ( कुलदीपक: सुपुत्रः ) कुल को प्रकाशित करने वाला कुल दीपक पुत्र ( स एव समवेत ) वही हो सकता है (यः) जो ( पौरूष ) पुरुषार्थ के द्वारा ( कुलोद्योतं एव) कुल का प्रकाशन उद्योतन हो ( करोति ) करता है । ( सो भवेत् ) वह कुलदीपक पुत्र ही होवे अर्थात् सभी माताओं को प्राप्त होवे ।
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भावार्थ इस प्रकार जिनके अन्तःस्थल में निरन्तर श्रेष्ठ विचार ही उत्पन्न होते हैं वे श्रीपाल महाराज इस प्रकार विचार कर रहे हैं कि पिता की मृत्यु हो जाने पर जो पुत्र अपने वंश, कुल की सुरक्षा और उन्नति के लिये प्रयत्न नहीं करता है वह उदर में पैदा हुए कृमि के समान माता की वेदना को बढ़ाने वाला है, माता के लिये कष्टकारी हो है तथा जो पुत्र अपने पुरुषार्थ से निरन्तर कुल का उद्योतन करने में तत्पर रहता है वह सुपुत्र ही कुलदीपक है वही माता के लिये सुखकारी होता है ऐसे पुत्र का होना ही सार्थक है क्योंकि वही कुल, देश वा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है ।। ५ ।।
प्रतोऽहं गतो गत्वा कृत्वा युद्धं च दारुणम् । अहो नाहं गृहीष्यामि यावद्राज्यं कुलागतम् ||६|| पितृव्यं संगरे जित्था लावत्स्वास्थ्यं कुतोऽत्र मे । विचिन्त्येति प्रजापालं प्रत्यवावीत् स तत्क्षणम् ॥७॥
अन्वयार्थ - ( अतो ) इसलिये ( अहं वेगतोगत्वा ) मैं शीघ्र जाकर (दारुणम् युद्धं च कृत्वा) और दारुण-भयंकर युद्धकर ( संगरे पितृव्यं जित्वा ) युद्ध में चाचा को जीत कर ( यावत् ) जब तक ( कुलागतम् ) कुल परम्परा से प्राप्त ( राज्य ) राज्य को ( श्रहं न गृहीष्यामि ) मैं नहीं ग्रहण करूगा (अहो ! ) अरे ! ( तावत् ) तब तक ( मे अत्र ) मुझे यहाँ ( स्वास्थ्यम् ) स्वस्थता वा शान्ति ( कुतो ) कहाँ अर्थात् कैसे संभव है ? ( इति विचिन्त्य ) ऐसा विचार कर ( तत्क्षणम् ) उसी समय ( स ) उसने ( प्रजापाल प्रति प्रवादीत् ) राजा प्रजापाल को कहा
राजन् यास्याम्यहं नूनं स्वदेशं पितृभूतये ।
ततोऽवोचन् नृपो धोमन् अर्धराज्यं गृहारण में || ८ |