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वडाने
श्रोपाल चरित्र दसम परिच्छेद]
[५४१ प्रतिकाररूप में भोगेच्छा जागृत होती है, पापवर्द्धन की कारण है, इसके उपशमन को उत्पन्न भोग चाह की दाह पैदा करते हैं। शरोर पीडन से ये उत्पन्न होते हैं । भला ये भोग कभी सुखदाता हो सकते हैं ? कभी नहीं। फिर भला ऐसे अथिर, कष्टदायी भोगों-की कौन बुद्धिमान आकांक्षा करेगा ? कोई नहीं । कहा भी है “भोग बुरे भव रोग बढावें, वरी हैं जग जीके । वेरस होय विपाक समय अति सेवन लामैं नीकें ।" अर्थात् भोग भयङ्कर शत्रु हैं, संसार रोग
ले हैं. देखने में भी जगप्सा के कारण हैं। यह भोग भोगते समय इन्द्रावण फलके सदृश रम्य प्रतीत होते हैं किन्तु विपाक समय-फलकाल में सद्य प्राणहरा, नीरस हो जाते हैं । इस प्रकार प्रत्यक्ष ठगने वाले इन आत्मघातक वञ्चकों को कौन बिबेकी चाहेगा ? अर्थात् ज्ञानीजन इन्हें दूर ही से त्याग देते हैं । वस्तुतः ये सर्वथा त्याज्य ही है ।।६।।
और भी कहते हैं -
य गवस्तुभिमुक्तस्तृप्ति त्मति जातु भो। वर्धतेऽस्यातितरां तृष्णा कि साध्यन्ते सतामिह ॥१०॥ विज्ञायेति द्रुतं त्यक्त्वा भोगान् शत्रूनिवाखिलान् । भार्यादि वस्तुभिस्साधं गृहणन्ति संयम बुधाः ॥११॥ इत्यादि चिन्तनादाप्य वैराग्यं द्विगुणं नृपः ।
त्यक्तु राज्यादिलक्ष्मींचावातुं संयममुद्ययो ।।२।। अन्वयार्थ – (यः) जिन (भोगवस्तुभिः) भोग सामग्रियों से (भक्तः भोगने से (प्रात्मा) पुरुष (जातु) कभी भी (तृप्तिः) सन्तोष (न) नहीं (ऐति) पाता है (भौ) हे जीव ! इसके विपरीत (अतितराम्] अत्यन्त (अस्य) इस जीव के (तष्णा) लोलुपता (वर्धते) बढती है (सताम्) सज्जन (इह) संसार में (किम् ) क्या (साध्यन्त) सिद्ध करते है ? कुछ नहीं (इति) इस प्रकार (विज्ञाय:) ज्ञालकर (श त्रून) शत्रु (इव) समान (अखिलान्। समस्त (भोगान) भोगों को (भार्यादि वस्तुभिः) स्त्री आदि वस्तुओं के (सार्धम्) साथ (द्र तम्) शीघ्र ही (त्यक्वा) छोड़कर (बुधाः) बिद्वानजन (संयमम्) संयम (गृह्णन्ति) धारण करते हैं। (इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार (चिन्तनात्) चिन्तवन करने से (नृपः) नृपति श्रीपाल (द्विगुणम्) दूना (वराग्यम्) वैराग्य (प्राय) प्राप्त कर (राज्यादिलक्ष्मी) राजवैभबादि को (त्यक्तुम्) छोड़ने (च) और (संयमम् ) संयम को (आदातुम् ) ग्रहण करने को (उद्ययौ) उद्यत हुए । सन्नद्ध हुए ।
भावार्थ- उत्तमोत्तम, रमणीय कहे जाने वाले भोगों को बार-बार भोग लेने पर भी मानव की कभी भी किसी प्रकार तृप्ति नहीं होती. संतोष की छाया भी नहीं पा सकता अपितु उत्तरोत्तर तष्णा ही बढ़ती जाती है । भला उन निस्सार भोगों से सत्पुरुष क्या सिद्ध करते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं। उन्हें सारविहीन और द खदायक समझ कर सर्वथा छोड़ ही देते हैं, ये त्याज्य और हेय ही हैं । इस प्रकार सम्यक् ज्ञातकर प्रवल शत्रु समान जान वर इन घातक