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[ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद श्रन्वयार्थ -- ( अहो ) आश्चर्य ! ( श्रयम् ) यह (देह) शरीर (सप्तधातुमय : ) सात धातुओं से निर्मित (अशुभ) अशुभ रूप ( रोगोरगनिवासः ) रोगरूपी सपों का वासस्थान घर ( यत्र) संसार में ( सर्वदुःखनिबन्धनः ) समस्त दुःखों का बीज इसे ( क्व ) किस प्रकार (शस्यते) प्रशंसा योग्य कहा जाये ? यह निद्य है ( यत्र ) जहाँ (काय कुटीरे । इस शरीर रूपी कुटी में ( क्षुत्तृकामको पाग्नयो ) भूख, प्यास, रोग, विषय-वासना, क्रोधादिकषायें रूप अग्नियाँ ( निरन्तरम् ) सतत (ज्वलन्धि ) जला रही हैं ( अस्मिन) इस ( काय कुटीरे ) शरीर रूपी
पड़ी में (तत्र ) वहाँ ( स्थातुम् ) ठहरने को (क) कौन ( इच्छति ) चाहता है ? कोई नहीं ( दशविधम् ) इस प्रकार स्वभावी ( कायम् ) शरीर को ( ज्ञात्वा ) जानकर (दक्षा : ) चतुर पुरुष ( भो ) हे आत्मन् ( अत्र ) इस शरीर में ( ममत्वम् ) ममकार बुद्धि को ( विहाय ) छोड़कर ( अकाय पदसिद्धये ) शरीर रहित पद सिद्धि के लिए ( सत्तपः ) सम्यक् तप ( कुर्वन्ति ) करते हैं ।
मावार्थ—शरीर वैराग्य को सुदृढ बनाने के लिए अशुचिकर दुर्जन शरीर क स्वरूप विचारना आवश्यक है । यह शरीर अतिशय प्रावन है क्योंकि इसकी रचना अपवित्र सात धातुओं से हुयी है। रोग रूपी व्यालों (सर्पों) की यह वामी घर है। एक आंख के जितने स्थान में ९६ वें रोग हैं। पूरे शरीर में पांच करोड़, अडसठ लाख, निन्यानवें हजार पाँच से चौरासी (५६८६६५८४) रोग शरीर में होते हैं । सारा शरीर चलनी के छेदों समान रोगों के घरों से भरा है । संसार में जितने इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग जन्य दुःख हैं उन सबका हेतू कारण यह शरीर ही है। इस प्रकार के निकृष्ट शरीर की कौन प्रशंसा करेगा ? अर्थात् कोई भी सत्पुरुष इसे अच्छा नहीं कह सकता । प्रीति भी नहीं कर सकता। यही नहीं पुरानी झोंपड़ी है शरोर । इसमें चारों ओर क्षत्रा (भूख ) तथा ( प्यास ) रोग-पीडा, आदि, व्यादि संताप, विषयवासना, क्रोध, मानादि अग्नियाँ निरन्तर धांय धांय जला रही हैं ऐसी ज्वालाओं के मध्य भला कौन विवेकी ठहरना चाहेगा ? अर्थात् एक क्षणमात्र भी स्थित रहना नहीं चाहेगा । इस प्रकार संसार भीरु विवेकशील पुरुष शरीर के स्वभाव को पहिचान कर समझ कर इससे मोह ममता छोड़कर कायरहित - अशरीरी सिद्धपद पाने के लिए कठोर, उत्तम सम्यक तप तपते हैं । अर्थात् निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर आत्मशुद्धि का प्रयत्न करते हैं सिद्ध होने का उपाय करते हैं । ८६ से ८८ ॥
श्रामे भोग्य-भोग वैराग्य की वृद्ध्यर्थं प्रसार भोगों का चिन्तवन करते हैं
कामज्वर प्रकोपोत्थ ये भोगाः पापवर्तिनः
वपुः कदर्थिनाज्जाता धीमांस्तान्कस्समीहते ६६ ॥
श्रन्ययार्थ- - ( ये ) जो ( भोगाः ) भोग ( कामज्वरप्रकोपोत्थ) कामरूपी ज्वर की दाहवेदमारूप क्रोध से उत्पन्न हैं । (पापवर्तिनः ) पाप में परवर्तन कराने वाले ( वपुः ) शरीर ( कथनात ) मन - पीड़ा से ( जाता: ) उत्पन्न होते हैं ( तान् ) उम वीभत्स दुःखदायी भोगों को (क) कौन ( धीमान् ) बुद्धिमान ( समीहते ) चाहता है ?
भावार्थ भोगों की उत्पत्ति का कारण काम है। कामज्वर है । इसकी वेदना के