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श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] है और प्राणियों का रक्षण करना धर्म है। ये सभी परिभाषाएँ आत्म-स्वभाव में ही अन्तर्गत हो जाती हैं। रत्नत्रय आत्मा का स्वभाव है उसी प्रकार उत्तम क्षमादि भी प्रात्मा के ही गुण हैं । जीवन रक्षण अहिसा है और प्रमाद रहित आत्मा ही प्रारिणबध से रहित होता है इसलिए "अत्तामेव अहिंसा" कहा है। इससे जीवानां रक्षणं यह भी यात्म-स्वभाव ही हुमा । इससे सिद्ध होता है कि ये सभी परिभाषाएँ आत्म-स्वभाव के ही द्योतक हैं। इस प्रकार धर्म स्वरूप का चिन्तन करना धर्म भावना है ।।८१-८२-८३।। और भी संसार शरीर भोगों की निस्सारता का विचार करता है ज्ञानी
यायदायुः क्षयं नागादिन्द्रियाणि पटु नै भो। जरा न प्रसते कालं सोधमोस्ति शुभामतिः ।। ८४ ।। तादनमोहमद मुस्ता लोक्ययिनं खलम् ।
दक्षैवैराग्य खड्गेन दीक्षारया यमापहा ।।८५॥ अन्वयार्थ-(वावत्) जब तक (पायुः) आयुष्य (क्षयम्) नाश को (न आगात्) प्राप्त न हो (इन्द्रियाणि) पांचों इन्द्रियां (पटुः) अपने-अपने विषय मे दक्ष-समर्थ हैं (जरा) वृद्धावस्था (न) नहीं हुयी (कालम्) मृत्यु (नग्रसते) नहीं निगलती (भो) हे आत्मन् ! (तावत् ) तब तक (लोक्य-जयिनम्) तीनों लोकों को जीतने वाले (खलम्) दुष्ट (मोहम्) मोह रूपी (भटम् ) सुभट को (दक्षः) भेद विज्ञानी जनों द्वारा (वैराग्य खड्गेन) वैराग्य रूपी तलवार से (हत्वा) नाश कर (सोद्यमः) उद्यमपूर्वक (शुभमतिः) सम्यग्ज्ञानी पुरुष को (यमापहा) यमराज नाशक (दीक्षा) दगम्बरी दीक्षा (आदेया) ग्रहण करना अर्थात् दीक्षा ग्रहण करना योग्य (अस्ति) है।
___ भावार्थ जन तक आयु पूर्ण न हो, इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं अर्थात् पांचों इन्द्रियाँ अपनाअपना कार्य करने में समर्थ हैं, जरा-वृद्धावस्था रूपी-डायन जब तक जर्जरित नहीं बनाती, यह निर्दयी काल नहीं निगलता, तब तक उद्यमशील शुभम ति-सम्यग्ज्ञानी पुरुष को मोह रूपी महासुभट को मारने का सत्प्रयत्न करना चाहिए। यह मोहमद महादुर्जेय है । तीनों लोक इसने अपने वशी बना रखे हैं । अतएव चतुर पुरुष को वैराग्य रूपी खड्ग से मोह शत्रु के नाश के लिए जनेश्वरी दीक्षा धारण करना चाहिए । तथा--
देहोऽयं शस्यते क्याहो सप्तधातुमयोऽशुभः । रोगोरग निवासोऽत्र सर्वदुःख निबन्धनः ॥८६॥ क्षुत्तडक काम कोपाग्नयो ज्वलन्ति निरन्तरम् । यत्रकायकुटीरेऽस्मिस्तत्र कः स्थातुमिच्छति ।।७।। ज्ञात्वाऽविधंकायं तन्ममत्वं विहाय भो। कुर्वन्ति सत्तपोदक्षाः अकायपद सिद्धये ।।८।।