SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२] [ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद जितदेवाङ्गना कन्या कुष्ठिने किं प्रदीयते । चिन्तामरिणः कथं देवक्षिप्यते कर्दमे त्वया ॥ ११२ ॥ अन्वयार्थ - ( कि ) क्या (जितदेवाङ्गता कन्या) देवाङ्गनाओं को भी जीतने वाली ( कुष्टि) कोड के लिए ( प्रदीयत) दी जाय ? (देव ! ) हे राजन् ( त्वया ) आपके द्वारा ( चिन्तामणिः ) चिन्तामणि रत्न ( कर्दमे ) कीचड़ में ( कथं ) किस प्रकार (क्षिप्यते ) फेंका जा रहा है ? भावार्थ -- राजा को मन्त्री समझाता है । राजन् यह राजकुमारी महान् सुकुमारी, सौन्दर्य की पुतली है । अपने सौन्दर्य और लावण्य से मुखनिताओं को भी तिरस्कार करने वाली है। अप्सराएँ भी इसके समक्ष परास्त हो जाती हैं। इतनी सुन्दर रति समान कन्या क्या कुष्ठी को दी जाय ? नहीं, कदापि नहीं । भला चिन्तामरिण रत्न क्या कभी कीचड़ में फेका जाता है ? हे भूपति ! आप यही कर रहे हो। पर तनिक विचार करो आप जैसा विवेको चिन्तामणि सदृश अपनी कन्या को कुष्ठी को देगा ? क्या रत्न भी कोई पक में फेंकने की वस्तु है । आप हठ छोडें। क्यों इस हीरारत्न स्वरूप कन्या के प्रति घोर अन्याय कर रहे हो ? पर सुने कौन ? “भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खडी पगुराय" वाली युक्ति थी ।। ११२ ।। अतः राजा ने उत्तर दिया दुराग्रही नृपश्चाह भो मन्त्रिन् श्रूयतां वचः । श्रयं चापि न सामान्यो दृश्यतेऽत्र महीतले ॥११३॥ अन्वयार्थ - (च) और भी ( दुराग्रही ) हरग्राही (नृपः ) राजा (आह ) बोला ( भो) हे ( मन्त्रिन्) सचिव ( भ्रम) मेरे ( वचः ) वचन ( श्रूयताम् ) सुनिये ( अत्र ) यहाँ ( महीतले ) पृथ्वीपर ( अयंचापि ) यह श्रीपाल भी (सामान्य) साधारण पुरुष ( न दृश्यते) नहीं दोखता है । भावार्थ- मन्त्रि द्वारा विरोध किये जाने पर राजा ने ध्यान नहीं दिया। समझाने पर भी नहीं समझा अपितु मन्त्रियों को ही समझाने लगा । हे मन्त्रिन्, यह श्रीपाल भले ही कुष्ठी है किन्तु तो भी कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। यह विश्वप्रसिद्ध कोई महान् सत्पुरुष होना चाहिए । अतः मैना को इसे देने में कोई हानि नहीं ।। ११३ || क्योंकि- छत्र चामर घण्टाघँज्र्झल्लरीनाद सुन्दरैः । राजचिन्हैः समायुक्तो, राजाप्येष भवत्यहो ॥११४॥ अन्वयार्थ - - यह ( सुन्दरैः ) मनोहर (छत्र, चामर, घण्टाद्यः ) छत्र, चमर घण्टा आदि से तथा (झल्लरीनादसुन्दरैः ) कर प्रिय भांभ, मंजीरा आदि की मधुरध्वनि से ( अहो ) हो मन्त्रिन् (एषः ) यह (अपि) भी ( राजचिन्ह. ) राज्य चिन्हों से ( समायुक्तः ) सहित (राजा) नृप (भवति) है, होना चाहिए ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy