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________________ २५८ ] [ श्रीपाल चरित्र चतुथं परिच्छेद तक भव भव में आपके परम पावन, अनन्य शरणरूप दोनों चरणों की शरण प्राप्त होती रहे । अर्थात् जैनधर्म और जिनभक्ति हो प्राप्त होती रहे ।। १३६ ।। रम् इत्यादिकं महास्तोत्रं पवित्रं शर्मकार कृत्वा जपादिकं नत्था निर्ययौ जिनमन्दिरात् ॥ १४० ॥ 1 अन्वयार्थ --- ( इत्यादिकम ) उपर्युक्त प्रकार ( पवित्रम् ) निर्मल ( महास्तोत्रम ) महास्तोत्र ( शर्मकारणम ) शान्तिदायक ( जपादिकम् ) जप आदि ( कृत्वा ) करके ( नत्वा ) नमस्कार करके (जिनमन्दिरात्) जिनालय से ( निर्ययौ) बाहर निकला । भावार्थ — उपर्युक्त प्रकार नाना प्रकार परम पवित्र स्तोत्र पढकर पुनः पुनः नमस्कार कर जपादि करके श्रीपाल आनन्द से जिनालय से बाहर आया ।। १४० ।। तावत्तत्र समागत्य विश्वाधरनरेश्वरः । कश्चिज्जगावतं प्रीत्या श्रीपालपरमोदयम् ।। १४१ ।। अन्वयार्थ -- ( तावत् ) जिस समय श्रीपाल मन्दिर से निकला उसी समय ( तत्र ) वहाँ ( कश्चिद्) कोई (विद्यावर नरेश्वरः ) विद्याधरों का राजा ( समागत्य ) श्राकर (तम् ) उस ( परमोदयम् ) परम उदय को प्राप्त ( श्रीपाल म् ) श्रीपाल को ( प्रीत्या ) प्रेम से ( जगाद ) बोला । भावार्थ जिस समय श्रीपाल जिनालय से बाहर आये उसी समय कोई एक विद्याधरों का नृपति वहां आया। श्रीपाल को अत्यन्त प्रेम से देखकर निम्न प्रकार बोला कहने लगा ।। १४१ ।। शृणत्वंभोमहाभाग रूपनिजितमन्मथ । अहं विद्याधरो राजा रत्नद्वीपेऽत्रशमंदे ॥ १४२ ॥ अन्वयार्थ - - ( भो महाभाग ! ) हे महाभाग्यशालिन् ( रूपनिर्जित) सौन्दर्य से जीत लिया है ( मन्मथ ! ) कामदेव तुमने ( त्वम् ) श्राप (वण) सुनिये ( श्रत्र ) यहाँ ( शर्मदे ) शान्तिदायक (रत्नद्वीपे ) रत्नद्वीप में ( अहम् ) मैं ( विद्याधर : ) विद्याधर (राजा) राजा हूँ । मावार्थ - वह श्रज्ञात व्यक्ति बोला, हे विशिष्ट भाग्यशालिन् ! आपने अपने परम सौन्दर्य से कामदेव को भी जीत लिया है। मैं इस शान्तिदायक रमणीय द्वीप का अधिपति हूँ विद्याधर राजा हूँ ।। १४२ ॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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