________________
श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
राज्यं करोमि मत्पत्नी मेघमाला गुणोज्वला । पुत्रौचित्रविचित्राख्यो समुत्पन्नौ मनः प्रियौ ॥ १४३॥
[२५६
अन्वयार्थ --- राजा कहता है इस द्वीप में ( राज्यम् ) राज ( करोमि ) करता हूँ ( मत्पत्नी ) मेरी पत्नी (गुणोज्वला ) उत्तम गुणों से निर्मल ( मेघमाला ) मेश्रमाला ( मनः प्रियो ) मन मोहक प्रिय ( चित्रविचित्राख्यो ) चित्र और विचित्र नाम के (पुत्र) दो पुत्र ( समुत्पन्नी) उत्पन्न हुए तथा --
पुत्री मा सर्वतः। रूपलावण्य सौभाग्यशील रत्नाकर क्षितिः ॥ १४४ ॥ ।
प्रन्वयार्थ - ( सर्वलक्षणसंयुता ) नारी सुलभ सम्पूर्ण शुभ लक्षणों सहित ( रूपलावण्य ) सौन्दर्य, श्राकर्षण (सौभाग्य) सुवासिनी ( शीलरत्नाकर क्षितिः) शील, सदाचार आदि की रत्नाकर भूमि सदा है ।
भावार्थ हे महाशय ! मैं इस द्वीप में राज्य करता हूँ । अत्यन्त उज्वल गुणों की खान "मेघमाला" नाम की मेरी धर्म पत्नी पटरानी है। उससे उत्पन्न चित्र और विचित्र नाम के दो गुणवन्त पुत्र हैं तथा रूप की राशि लावण्य से चन्द्र का उपहास करने वाली, सौभाग्यमण्डित, शोल की खान अनेक गुणों की भूमि, मानों गुणरत्नों की सागर हो ऐसी मदनमञ्जूषा नाम की मेरी पुत्री है ।। १४३ - १४४ ।।
एकदाहं महाप्रीत्या ज्ञानसागरयोगिनम् । सम्प्रणम्यकृतप्रश्नो भो स्वामिन् मे सुतावरः ।।१४५।। को भावी त्वं कृपां कृत्वा सुधीवक्तुमर्हसि । ततो जगौयतिश्चैवं भो विद्याधर भूपते ॥ १४६॥ अस्मिन् द्वीपे जिनेन्द्राणां सहस्रशिखरान्विते । चैत्यालये महावज्रकपाट युगलंदृढम् || १४७।। उद्घाटयिष्यति व्यक्तं महाकोटिभटः पुमान् ।
यस्भर्त्ता सुतायास्ते भविष्यति न संशयः ।। १४८ ।। चतुष्कम् ।।
अन्वयार्थ - ( अहम् ) मैंने राजा (एकदा) एक समय ( महाप्रीत्या ) अत्यन्त अनुराग से ( ज्ञानसागर योगिनम् ) ज्ञानसागर नाम के मुनिराज को ( सम्प्रणम्य ) सम्यक प्रकार ननस्कार करके ( प्रयन: ) प्रश्न ( कृतः ) किया. ( भो स्वामिन् ) हे मुनिवर ! (मे) मेरी ( सुताबर: ) कन्या का वर ( को ) कौन (भावी ) होनहार है ? ( कृपाम् ) दया ( कृत्वा) करके ( सुधीः )