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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
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भक्ति वश हो आज मैं आपका गुणानुवाद करने के लिए तत्पर हुआ हूँ। यह सब मेरी शक्ति नहीं पी का प्रभाव है ।। १३६ ।।
अत्र देव नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्यमूर्त्तये ।
नमो मुक्तयङ्गना भर्त्रे, धर्मतीर्थप्रवत्तने ॥१३७॥
अन्वयार्थ - ( अ ) यहाँ, अब (देव) भो देव ! ( तुभ्यम् ) आपके लिए (नमः) नमस्कार है (दिव्यमूर्तये) हे दिव्यमूर्ति (ते) आपको (नमः) नमस्कार हो, (मुक्तिमना) मुक्तिरुपी भार्या के (भ ! ) पति ! ( धतीर्थप्रवतिने ! ) हे धर्म तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थङ्कर प्रभो ! (नमः) आपको नमस्कार हो ।
भावार्थ हे देवों के देव ! में अल्पज्ञ मात्र नमस्कार कर ही आपके गुण समूह का गान कर सकता हूँ अतः हे दिव्यमूतें आपको नमस्कार हो । मुक्ति कन्या का वरण करने वाले प्रभो आपको नमस्कार है। हे जिनाधीश, हे धर्मेश ग्राप हो धर्मतीर्थंकर हैं आपके चरणों में बारम्बार नमस्कार है ।। १३७ ।।
ग्रहो स्वामिन जडोलोकस्तावदुःखभवायेंगे |
यावत् त्वं भक्तिभारेख वीक्षितो न दुखी नरः ॥ १३८ ॥
अन्ययार्थ ( श्रहो स्वामिन् ) हे भगवन् ( जडोलोक: ) मूर्ख संसारी जन ( नरः ) मनुष्य (दुःखभवार्णवे ) दुःखरूपी संसार में ( तावत्) तभी तक ( दुखी) पीडित हैं ( यावत् ) जब तक (स्वम् ) आप ( भक्तिभारेण ) भक्तिभाव से (न) नहीं ( वीक्षितः ) देखे गये ।
भावार्थ - हे परमात्मन् ! अन् स्वामिन् यह संसार दुःख का भयङ्कर समुद्र है । समस्त प्रज्ञानी प्राणी इसमें दुःखानुभव कर रहे हैं। इसका कारण आपके दर्शन और भक्ति का अभाव है। जो भक्तिभाव से अपका दर्शन करता है उस संसार जन्य दुःख, ताप, सता नहीं सकता । अतः हे भगवान् जीव तभी तक दुःखी रहता है जब तक भक्तिभा से आपका दर्शन नहीं करता ।। १३८ ॥
संसारमतो देव पूतं ते चरणद्वयम् ।
अनन्यशरणीभूतं भूयाम्मे शरतं प्रभो ॥१३६॥
प्रन्वयार्थ - - ( श्रतः ) इसलिए (देव) हे देव ! (आसंसारम् ) मुक्ति प्राप्ति पर्यन्त (ते) आपके ( पूतम् ) पवित्र (अनन्यशरणीभूतम् ) प्रप्रतिमशरण स्वरूप (चररणडयम) दोनों चरण कमल (में) मेरे लिए (प्रभो ) हे प्रभो ( शरणम ) शरणरूप ( भूयात्) होवें ।
भावार्थ- हे प्रभो, इसीलिए मैं चाहता हूँ कि जब तक मुझे मुक्ति प्राप्ति न हो तब