________________
श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद |
एते तीर्थकराधीशास्सर्वदेवेन्द्र वन्दिताः।
सार्द्ध द्वीप द्वयोत्पन्नास्सन्तु मे शान्तये जिनाः ॥ १५ ॥
अन्वयार्थ--(सर्वदेवेन्द्रवन्दिताः) सम्पूर्ण देवेन्द्रों के द्वारा वन्दित (एते तीर्थंकराधीशा) तीन लोक के अधिपति ये सभी तीर्थकर तथा (सार्द्ध द्वीपद्धयोत्पन्नाः जिनाः) ढाई द्वीप में उत्पन्न जिन-अर्हन्तदेव (मे शान्तये) हमारी शान्ति के लिये (सन्तु) होवें।
भावार्थ-जिन भक्ति से आत्मणान्ति तथा अनन्त सुख की प्राप्ति होती है ऐसा उपर्युक्त श्लोक से विदित होता है । योग्य वाह्य निमित्त प्रात्मशुद्धि में सहकारी हैं, सहायक हैं तभी तो करणानुयोग में ऐसा उल्लेख है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति केवली थु त केवली के पादमूल में ही कर्मभूमिज मनुष्य को होती है । इस तथ्य को दृष्टि में रखकर ग्राचार्य प्रस्तुत श्लोक में कहते हैं कि ये सभी जिन या अर्हन्त प्रभु मेरी प्रात्मशान्ति के लिये होवें ॥१५॥
इसके बाद आचार्य श्री सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं
दुष्टाष्टकर्म विनिमुक्तान् सिद्धान् सिद्धिप्रदांश्चतान् ।
श्रलोक्य शिखरारूढ़ान् संस्तुवे त्रिजगन्नुतान् ॥ १६ ॥
प्रन्ययार्थ- (त्रिजगन्नुतान्) तीनों लोकों के द्वारा वन्दित (त्रैलोक्यशिखरारूढान्) तीन लोक के शिखर पर विराजमान (दुष्टाप्टकर्म विनिर्मुक्तान्) दुःख कर अष्टकर्म बन्धन से मुक्त (सिद्धिप्रदान् च) और सिद्धि को देने वाले (तान् सिद्धान) उन सिद्धों को (संस्तुवे) संस्तुत करता हूँ अर्थात् मैं उनकी स्तुति करता हूँ।
भवार्थ--जो अष्टकर्म रूपी दुष्ट शत्रुओं का निर्मूल विनाश कर चुके हैं और तनुयातवलय में अर्थात् लोक के शिखर पर विराजमान हैं । चक्रवर्ती इन्द्रादि सभी के द्वारा सदा पूजित होते हैं जिनका ध्यान बा स्मरण करने से भव्य जीवों को शीघ्र मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है ऐसे श्री सिद्ध परमेष्ठी को आचार्य श्री प्रात्मशक्ति की अभिव्यक्ति के लिये नमस्कार करते हैं ।।१६॥ प्रागे प्राचार्य श्री केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये जिनवाणी को नमस्कार करते हैं
श्री सर्वज्ञमुखाम्भोज समुत्पन्नां सरस्वतीम् । भुक्तिमुक्तिप्रदा बन्दे संदेहहरणे सतीम् ॥ १७ ।। या सती सर्वजन्तूनां नेत्रप्रायो हि भारती।
भानुनेव मनोध्यान्तनाशिनी तत्त्वभासिनी ॥ १८ ॥
अन्वयार्थ-(भानुना इन्त्र ) सूर्य के समान प्रकाशमान (मनोध्वान्तनाणिनी) चित्त में व्याप्त मोह वा अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली (तत्व भासिनो) तत्त्व का प्रकाशन