SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] उनमें प्रीति-अनुराग नहीं रखता अपितु सतत. भोगों में रत रहता है, हे भव्यजन हो उसके जीवित रहने से क्या प्रयोजन ? अर्थात् वह मात्र पृथ्वी का भार है, जीवन-मरण उसका एक समान ही है । अभिप्राय यह है कि दान पूजा करना तथा शील पालन, तप धारणादि ही मनुष्य जीवन के कर्त्तव्य हैं जो कर्तव्यनिष्ठ है उन्हीं का जीवन सफल है ।।५७।। चन्द्रलेखा वचोऽवादीत कि करोति तयात्र सः । श्रीपालो बुद्धिमान् प्राह तस्येदमुत्तरं स्फुटम् ॥५८।। अतिकान्तवयो वृद्धो बालां परिणयेत् यः। पार्श्वे तिष्ठतु तस्यषा "किं करोति तयात्र सः" ॥५६॥ पाठान्तर भी है—"तद्वाञ्छा निष्फलैव हीति च पाठः ।।" इसका उत्तर-- वृद्धा रोगी सवा दुःखो तथा यूक्कियारतः । विवाहति यः कन्या तहाउछा निकलेवहिं ॥६०॥ अन्वयार्थ अन्तिम समस्या उपस्थित करते हुए चन्द्रलेखा बोली, "उस स्त्री के साथ वह यहां क्या करता है ?' (किं करोति तयात्र सः ?) यह एक चरण है, तीन चरण बाकी के श्रीपाल जी अपनी बुद्धि से संयोजित करते हैं, जिसके फल स्वरूप ५८ वां प्रलोक है । इसकी रचना कर श्रीपाल जी ने अपनी हाजिर जवाबी बुद्धिकला का परिचय दिया । वह उत्तर में कहता है, जिसकी विवाह करने की बय-आयु बीत चुकी है, अर्थात् वृद्धावस्था आगई है वह पुरुष बाला छोटी कन्या के साथ यदि विवाह करे तो, बगल में बैठी ही भी उस कन्या से बह पूरुप क्या प्रयोजन सिद्ध करता है ? अर्थात भोग्य योग्य न होने से उसके परिणयन से कुछ भी साध्य नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है समान वय गुण शोल वाली कन्या को परण कर ही मनुष्य रति सुख का अनुभव करने में समर्थ होता है अन्यथा नहीं। वेमेल बिवाह दुःख का कारण है ।।५८ ।। पाठान्तर का उत्तर निम्न प्रकार है बद्ध, रोगी, ध तक्रीडा में तल्लीन रहने वाला, सतत दुःखी जीवन बिताने वाला जो व्यक्ति कन्या के साथ विवाह करता है, उसकी इच्छा-आकांक्षा व्यर्थ ही है। अर्थात् वृद्ध भोग करना चाहता है किन्तु इन्द्रिय शक्ति क्षीण होने से स्त्री संभोगादि हास-विलास कर नहीं सकता। ईमृतक समान उसकी दशा से बह कन्या भी प्रसन्न नहीं हो सकती, उसे भी प्रसन्न करने को वह करे भी क्या ? इसी प्रकार रोगी पुरुष भी स्पर्शनेन्द्रिय जन्य भोग की वादा करता हुआ भी भोग का आन्नद ले नहीं सकता । जुयारी तो व्यसनासक्त हो उसे ही दाव पर लगा देता है वह रतिसुखानुभव क्या करेगा ? अहर्निग जो दारिद्रय से पीडित है तथा अन्य रोगादि से व्याकुल रहता है उसकी चाश्च्छा भो निष्फल हो जाती है। क्योंकि कन्या के साथ विवाह करने पर भी वह दाम्पत्य जन्य सुख नहीं पा सकता अतः उसके अरमान उसी में उठ-उठ कर विलीन होते रहते हैं। पानी के बबूले समान इच्छाएं उठकर विलीन होती रहती हैं ॥६॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy