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॥ नवम. परिच्छेदः॥
अथ श्रीपालभूपालो जिनधर्म जगद्धितम् । श्रुत्वा पुनविशेषेण ज्ञातु तं मुनिनायकम् ॥१॥ वन्दिस्वा प्राह भो स्वामिन् जगत्त्रय हितंकरम् ।
ब्रूहि भोकरुणासिन्धो, विश्वतत्व विदाम्बर ॥२॥ अन्वयार्थ-श्रुतसागर मुनिराज के मुखारविन्द से धीपाल भूपाल ने धर्मोपदेशामृत का पान किया किन्तु उसकी चिरपिपासा शान्त नहीं हुयो । अत: विशेष रूप से धर्म का लक्षण ज्ञात करने के लिए पुनः प्रार्थना करता है
(अथ) श्राव। धर्म स्वरूप (श्रुत्वा) सुनकर (श्रीपाल भपाल:) श्रीपालनरेश्वर ने (जग द्धितम ) संसार का हितंकर (जिनधर्गम ज़िमधर्म को (एन: पुन: (विशेषेण) विशेष रूप से (ज्ञातुम् ) जानने के लिए (तम्) उन (मुनिनायकम ) मुनोन्द्र को (वन्दित्वा) नमस्कार कर (प्राह) बोला (भो) हे (स्वामिन्) प्रभो! (भो) हे (करुणामिन्धो ! ) करुणासागर ! (विश्वतत्त्व विदाम्बर ! ) भो विश्व के तत्वों के शायक प्रभुवर ! (जगत्त्रयहितंकरम) तीनलोक का हितकरने वाला (धर्मम्) धर्म (पुनः) फिर से (बहि.) कहिये ।
भावार्थ-थी श्रुतसागर वास्तव में श्रुतरूप महोदधि के पारगाभी थे । उनकी वारणी रूपी चन्द्रिका से श्रावकधर्म का प्रकाश प्राप्त कर श्रोपाल भूपेन्द्र को ज्ञानपिपासा अधिक बड गई । अतः और भी विशेष रूप से धर्म के रहस्य को पुण्य-पाप के फल को जानने समझने की उत्कण्ठा प्रबल हो गई । वे श्रीमुनिराज गुरुदेव को पुन: पुन: बन्दन कर, नमस्कार कर, करा
जुलि मस्तक पर चढाकर बोले-हे प्रभो ! भो स्वामिन् ! भो करुणासागर ! अहो विश्व सत्त्व ज्ञाता ! संसार का हित करने वाला धर्म और भी विशेष रूप से जानना चाहता हूँ । ठीक ही तत्त्व जिज्ञासा इसी प्रकार की होती है । इसमें सन्तोप कहाँ ? तभी तो अहमिन्द्र लोक में तत्व विवेचना मात्र में ३३ सागर की दोर्ष प्रायु क्षणभर के समान निकल जाती है। भव्य नीबों को तत्त्वपरिझान अवश्य ही करना चाहिए ।।१,२॥
प्रागे श्रीपाल जी पुनः प्रश्न करते हैं ..
भगवन् केन पुण्येन राज्यं प्राप्तोऽति शैशवे । नातः कोटिभटएचाहं केन पापेन राज्यतः ।।३।।