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________________ १८८] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद • सम्पन्न हो । आपकी जय हो । आप सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, सम्यक्त्व, अगुरुल चु, अव्याबाधगुणों से युक्त हैं प्राप की जय हो, आप जयवन्त रहो। आप करूणासागर हैं, तीनों लोकों के आभूषण हो, मुनियों के ईश हो आपको जय हो, जय हो । आप तीनन्नोक प्रसिद्ध हो, शुद्धभाव युक्त शुद्धभावों के कारण हो, हे सिद्धसमूह ! आपकी जय हो । परमोत्तम चारित्र के सार हैं, महान यति, ऋषि, मुनियों से ससेवित हैं, हे सिद्धचक्र देव ! आप की जय हो, जय हो । ग्राप मुक्तिबधु के कण्ठहार हैं, कविराजों से पूज्य हो, परमशिवालय में निवास करने वाले राजधिराज हैं आपकी जय हो, दोषसमूह के नाशक हो, तनुवातवलय में स्थित रहने वाले हैं, शक्रादि आपके चरणों में नतशिर हैं. आपकी जय हो । प्राणीमात्र के मनों को वश करने वाले हो, आपका नाममात्र लेने वाले को नाना सम्पत्तियों का खजाना प्राप्त होता है । आप अचल चारित्र के धारी हैं। संसार उदधि को पार करने के लिए जहाज हैं । अापकी जय हो, जय हो, सदा जय हो। इस प्रकार यह सिद्धसमूह, मोह का पूर्णनाश करने वाला है। जो विशुद्ध मति इस सिद्धचक्रदेव की स्तुति करते हैं वे महागुणों के भाण्डार हो जाते हैं, पूर्णचन्द्रसमान दैदीप्यमान होते हैं, अनन्त सुख सम्पत्ति के प्रागार होते हैं, परम जिनेन्द्ररूप हो जाते है ।। १०७ से ११६॥ इस प्रकार पूर्ण श्रद्धाभक्ति से स्तवनकर निम्न मन्त्र का १०८ बार जप करे - अष्टोत्तरशतेनोच्च पैः पाप प्रणाशनः । असि आ उ सा इत्येवं जपनीयं च तद्धितम् ।।११७॥ अन्वयार्थ- (असि आ उसा) असि आ उ सा (इति) इस मन्त्र का जाप (पापप्रणाशनः) पापों का नाश करने के लिए (एवं) इस प्रकार (तत्) उस (हितम् ) हितेच्छ को (अष्टोत्तरशतेन) एक सौ आठ बार (उच्चैः) विशेष पल्लवादि सहित (जपः) जपों से (जपनीयम्) जाप चरना चाहिए (च) और क्रिया पूर्ण करे । भावार्थ-."ॐ हीं अह असि पा उ सा नमः । इस मन्त्र का विधिवत् जाति. मल्लिकादि पुष्पों से १०८ बार जाप करे । यह मन्त्र सर्वपापों का नाश करने वाला और सुख-शान्ति का देने वाला है। इस प्रकार पूजा करके पूर्ण भक्ति और श्रद्धा से हे पुनि तुम गन्धोदक से अपने पति और अन्य सभी कुष्टियों को सर्वाङ्ग में अभिसेचन करो ।।११७।। तथाहि - तत् स्नानगन्धतोयेन सिक्तव्यं तय बल्लभः । गत व्याधिस्तथा कामदेवो या सम्भविष्यति ॥११८।। अन्वयार्थ---हे पुत्रि ! (तत्) उस अभिषेक से (स्नानगन्धतोयेन }अभिषेक के गन्धमिश्रित गन्धोदक से (तव) तुम्हारा (वल्लभः) पति (सिक्तव्यम्) अभिसिंचित किया जाना चाहिए (तथा) इस प्रकार करने से (व्याधिः) रोग (गतः) रहित (वा) तथा (कामदेव:) कामदेव सदृश सुन्दर (सम्भविष्यति) हो जायेगा।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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