________________
श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[१८६ रावा .. मी सुन्दरी को उपहार उपदिष्ट करते हुए प्रादेश प्रदान कर रहे हैं कि हे पुत्रि ! श्रीजिनदेव और यन्त्र का जो पञ्चामृताभिषेक तुमने किया था उस गन्धोदक को तुम्हारे पति के सम्पूर्ण शरीर को छिडको अर्थात् सर्वअङ्गों में सिर से पैर तक स्नान कराने के समान लगाओ। निश्चय ही इससे उसका रोग नष्ट होगा। तथा उसका सौन्दर्य कामदेव के समान हो जायेगा ॥११८।।
इत्यादि सिद्धचक्रस्य विधानं शर्मदायकम् । श्रुत्वा श्रीपलिनासार्द्ध, तदा मदनसुन्दरी ॥११॥ तदवतं त्रिजगत्सारं, ग्राहयित्वा निजं पतिम् । गहीत्वा च स्वयं भक्त्या, परमानन्द निर्भरा ॥१२०॥
अन्वयार्थ—(इत्यादि) उपर्युक्त सर्वविधि सहित (शर्मदायकम्) सुखदायक (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र विधान पूजा (विधानम) विधान को (श्रीपतिनासार्द्ध) अपने पति के साथ (श्रुत्वा) सुनकर (तदा) तब (मदनसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ने ।।११।।
(परमानन्दनिर्मरा) परम आनन्द से हर्षित उस मदनसुन्दरी ने (सत्) बह (त्रिजगत्सारम्) तीनों लोकोसारस्वरूप (व्रतम्) व्रत को (निजम्) अपने (पतिम् ) पति को (ग्राहयित्वा) धारण कराकर (च) और (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (स्वयं) अपने भी (गृहीत्वा) ग्रहण-धारण करके ।।१२०।।
मुनि नत्वा सुभावेन गृहमागत्य सा सती।
सिद्धचक्र महायन्त्रं, चारु चामीकरोद्भवम् ॥१२१॥
अन्वयार्थ--(सुभावेन) उत्तम भाव से (मुनिम्) मुनिराज को (नत्वा) नमस्कार कर (सा) उस मैंना (सती) साध्वीस्वरूपा (गृहम् ) घर (आगत्य) आकर (चारू) सुन्दर शुद्ध (चामीकर) सुवर्ण से (सिद्धचक्रमहायन्त्रम् ) सिद्धचक्रमहायंत्र को (उद्भवम् ) खुदवाया
तथा ..
कारयित्वा तदा शीघ्र पर्वोक्तविधिना शुभम् ।
सामग्री सा विधायोच्च जंगच्चेतोऽनुरञ्जिनीम् ॥१२२॥ अन्वयार्य--(तदा) तब (सा) उस सुन्दरी ने (शीघ्रम् ) अतिवेग से (पूर्वोक्त) ऊपर बताई (विधिना) विधि से (शुभम् ) मङ्गलमयी (जगत्) प्राणिमात्र का (चेतः) चित्त-मन (अनुरञ्जिनीम्) हरण करने वाली (सामग्रीम्) पूजासामग्री को (उच्चैः) विशेषरूप से (विधाय) तैयार कराकर (कारयित्वा) करवाकर--