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[ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
पोषाक गहने, होरा, मोतो, पन्ना, मुहर, सिक्के आदि उन्हें पारितोषक रूप में प्रदान किये 1 यही श्रीपाल उन्हें भेंट स्वरूप चीजें प्रदान करने लगे कि सारा रङ्ग ही भङ्ग हो गया । सबके चेहरों का रङ्ग ही उड गया । सब हक्का-बक्का आश्चर्य में डूबने लगे । आँखें खुली की खुली रह गई । देखिये कैसे क्या हुआ - ।।१२३ से १२६ ।।
राजाज्ञया यदा सोऽपि श्रीपालो दातुमुधतः ।
तावत् ते तं समालोक्य कृत्वा संरोदनं खलाः ।। १२७ ।। तन्मध्ये कोऽपि चाण्डालो जगौ पापीति तं प्रति । गतोऽस्येतद्दिनावधि ॥ १२८ ॥
अरे
काचिन्नीचा गले लग्ना रुदन्ती पुत्र-पुत्र भो । त्वं दृष्टोऽसि मम प्राणावल्लभो बहुभिर्दिनः ॥ १२६ ॥
करचिन्मे देवरोमूढा काचिन्मे बन्धुरजा । जामाता पापिनी काचिद् भागनेयश्च सा परा ।। १३० ।।
एकश्चाण्डालकः प्राह भो राजन्नयमुत्सुकः । कुटुम्बकलहं कृत्वा रुष्टोऽसौ सागरेऽपतत् ॥ १३१ ॥
श्रद्यभाग्येन संजीवदृष्टोऽयमत्र भूतले । श्रन्यैश्चाण्डालकंश्चाऽपि स्वेच्छयालपितं खलैः ।। १३२ ।।
अन्वयार्थ ( स ) वह (श्रीपाल : ) श्रीपाल (अपि) भी ( यदा) जिस समय ( राजाज्ञया ) राजा की प्राज्ञा से ( दातुम ) पारितोषिक देने को (उद्यतः) तैयार हुआ ( तावत् ) उसी समय (ते) के ( खलाः) मूर्ख नट (तम् ) उस श्रपाल को (समालोक्य ) आँख फाड देखते हुए ( सरोदनम् ) जोर जोर से रोना ( कृत्वा) करके (तन्मध्ये ) उनमें से ( क ) कोई (अपि) भी एक (पापी) पाप ( चाण्डाल.) नर्तक ( तं प्रति) धोपाल से (जगी) बोला ( अरे) भो (पुत्र) सुत ! (त्वम्) तुम (क्व) कहाँ ( गतः ) गये ( काचित् ) कोई (नीचा ) नीच ( गले लग्ना) गले में चिपटकर (एतत् ) इतने ( दिनाबधि) दिनों से ( गतोऽसि ) तुम चले गये, ( काचित् ) कोई स्त्री ( रूदन्ती) रोती हुयो ( भो ) है ( पुत्र) बेटा ( पुत्र ) लाल (मम्) मेरे ( प्राणवल्लभः) प्राणप्रिय ( बहुभिः ) बहुत ( दिन ) दिनों बाद ( दृष्टः ) देखे गये ( असि ) हो । ( काचित् ) कोई (मे) मेरे ( मूढ) मुर्ख (देवर) देवर ( काचित् ) कोई (मे) मेरे (अग्रजः ) बड़े (बन्धु) भैया ( काचित् ) कोई ( पापिनी ) पापिनी (जामाता ) जंबाई (अपरा ) दूसरो (सा) वह स्त्री ( भागनेयः) भानजा कहने लगी, (च) और (एक) एक ( चाण्डालक: ) चाण्डाल (प्राह ) बोला ( भो ) हे ( राजन् ) नृप ( अयम् ) यह ( उत्सुकः ) उत्तेजित (रुष्टः ) रूठकर ( कुटुम्बकलहं ) आपस में झगडा ( कृत्वा) करके (अस) यह ( सागरे ) समुद्र में