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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] (अपतत्) गिर गया, (अद्य) आज (पत्र) यहाँ (भूतले) संसार में (अयम् ) यह (संजीवन्) जीवित (भाग्येन) शुभभाग्य से (दृष्टः) दिखा है, (च) और (अन्यः) दूसरे (चाण्डालकः) वे नीच बहुरूपिया (खलः) दुष्ट (अपि) भी (स्वेच्छया) इच्छानुसार यद्वा तद्वा (लपितम्) बोलने लगे।
भावार्थ---महाराज धनपाल के आदेशानुसार कोटिभट श्रीपाल उन बहु वेषधारी नटों से इनाम लेने को कहने लगा । वह राजा के अभिप्रायानुसार उन्हें बस्त्रालङ्कार, मणि, मुक्ता, रुपया आदि वितरण करने को तत्पर हुआ। परन्तु यह क्या यहाँ तो रङ्ग-भङ्ग हो गया। किसी को कुछ समझ में ही नहीं पाया कि यह सत्य है या इन भांडों का कोई खेल प्रदर्शन है । ज्यों ही श्रीपाल उन्हें इनाम देने माया कि उन पूर्व पाठित-पहले सिखाये-पढाये खिलाड़ियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया । किसी ने हाथ पकडा, किसी ने शिर । सब एक साथ फट-फट कर बनावटी रोदन करने लगे । मला फाड़-फाड़ कर विलाप करने लगे। उनमें से एक दुष्ट उस श्रीपाल की ठोडी पकड कर अत्यन्त प्रेमानुराग दिखाते हुए बोला, भो प्राणप्रिय सुत तुम कहाँ चले गये, दूसरी बोल उठी, बेटा-वेटा इतने लम्बे समय से कहाँ रहे, तेरे लिए देखने को ही मानों मेरे प्राण नहीं निकले, इस प्रकार बोलती हुयी उसके गले में लिपट गई । कोई हे प्राणनाय, प्रिय तुम बहुत दिनों से प्राज दिखे हो, । हे मूर्खाधिराज देवर ! वस्तुतः तुम निरे अज्ञानी हो, भला कोई अपना घर छोड़ता है ? क्या जुओं के भय से कोई लहंगा फेंकता है ! कोई बाली प्यारे भैया तुम कहाँ गये थे । कोई पापिनी कहने लगी मेरी बेटी को छोड़कर आपको जाना उचित था क्या ? जंवाई जो आपके जाने से उसे और हम लोगों को कितना कष्ट हुमा मालूम है ? कोई मामी बनकर बोल उठो भानजे जी आप को इतना अहंकार शोभा नहीं देता । घर-बार छोड़ा तो छोडा प्राणों की भी बाजी लगा बैठे। इस प्रकार नटानियों ने भरपूर-पूर्णत: अपना तिरिया चरित फैलाया । इसी बीच एक दुर्जन नटनायक, राजा धनपाल का सम्बोधित कर बोल उठा, भो भूपते ! यह बहुत गुस्सैल है, उतना ही भाबुक है, देखिये तो इसकी लीला ! एक दिन घर में सबके साथ कलह कर डाला । सारे कुटुम्बी त्रस्त हो गये । तो भी इसे सन्तोष नहुना । कोपानल से लाल ताता हो गय
गया। आबदेखा-न ताब बस दौड़ चला और रोकते-रोकते भी भोषण समुद्र में कूद पड़ा । "क्रोध अन्धा होता है" कहावत चरितार्थ कर ही दी। उसी दिन से हम लोग इसकी छानबीन करते रहे। आज हे राजन आपके प्रसाद से हमारे इस कुलदीपक की प्राप्ति हुयी है । हमारा महान पुण्योदय है जो यह मृत्यु मुख में जाकर भी जीवित मिल गया । उसी समय अन्य अन्य वे धूर्त जोजो जैसा जिनके मन में आया बोलने लगे। नाना प्रकार उसे तायना-उलाहना देने लगे। रोरोकर आकाश गुजा दिया पर पीडा किसे थी ? बाहर मात्र शोक का प्रदर्शन, परन्तु अन्तरङ्ग में धन की चाह का आभा दोप जल रहा था, जगमगा रहा था । यह है उनकी दशा । अब जरा दर्शकों और मुख्यतः राजा की ओर आ जाइये । देखिये इधर क्या होता है ?।।१२७, १२८ १२६, १३०, १३१,१३।।
धनपालस्तदा राजा महाविस्मय शोकभाक् । भो श्रीपाल जगादेतत् किं सत्यं मे वद द्रुतम् ॥१३३॥