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________________ ५२ ] | श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद चार मागधाद्यैश्च स्तूयमानो यशोधनः । देवtन्द्रो बालसन्मूतिनिर्ययौ जिनभक्तिभाक् ॥ १०८ ॥ श्रन्वयार्थ - ( इत्येवं ) इस प्रकार ( श्रं णिको नृपः ) श्रेणिक राजा ( भव्योद्य :) भव्यजनों से (संभुतो ) सहित (चेलनादि प्रियोपेतः) पट्टमहिषी चेलना देवी आदि प्रियाओं सहित (पुत्रादिभिर्युतः ) पुत्र आदि बन्धु बान्धवों के साथ | ( योग्ययानं समारूढ़ो ) योग्य वाहन पर श्रारूढ़ हुआ ( विलसन् छत्रचामर: ) सुन्दर विलास करते हुए चमर जिस पर बुलाये जा रहे हैं ऐसे ( ध्वनद्वादित्तसंदोहे :) तथा बजते हुए बाजों के साथ (जयकोलाहलध्वनैः) जय जय के कोलाहल रूप ध्वनि के साथ | ( यशोधनः ) यश ही है घन जिनका ऐसे वे राजा श्रेणिक महाराज (चार मागधाशन्त) मागघ आदि चारण भाटी द्वारा ( स्तूयमानः ) स्तुत होता हुआ (च ) और (लसम्मूर्ति देवेन्द्रो वा ) शोभायमान देवेन्द्र का ही मूर्तिमान रूप हो इस प्रकार ( जिनभक्तिभाक् ) जिनभक्ति से भरा हुआ (निर्ययौ ) नगरी से निकला । भावार्थ - राजा प्रजा पालक होता है । प्रजा उसके सुयण कुयश की प्रतीक होती है । संसार में कहावत प्रसिद्ध है "यथा राजा तथा प्रजा" अर्थात् जैसा योग्य या अयोग्य राजा होता है उसी प्रकार की उसकी प्रजा भी होती है । “राजा धर्मे धर्मिष्ठः " राजा यदि धर्मनिष्ठ होता है तो प्रजा भी स्वभाव से धर्मानुरागिनी होती है। महाराजा श्रेणिक सम्यक्त्व गुण से मण्डित महामण्डलेश्वर था । उसी प्रकार उसकी प्रजा भी धर्मानुरागिनी थी। सभी भक्ति से भरे हुए जयजयकार करते हुए श्री महावीर प्रभु के दर्शन के लिये चले । रनवास की समस्त रानियाँ, पुत्र पौत्र अपने-अपने उचित वाहनों पर सवार हुए। पालको, हाथी, घोड़े, रथादि सजेधजे चलने लगे । राजा रानी वा राजकुमारों पर यथायोग्य छत्र चमर लगाये गये थे । दुर हुए चामरों की शोभा देखते ही बनती थी । विविध प्रकार के बाजे बज रहे थे । झाँझ मजीरा ढोल, नगाड़े, बीन, बाँसुरी आदि बाजों की ध्वनि कान और मन को हरण करने वाली थी । जयनाद के साथ घुरुयों की कार बड़ी ही सुहावनी प्रतीत हो रही थी। चामरों का उत्थान पतन, सागर की लहरों का स्मरण दिला रहा था। कोई समवशरण की शोभा और रचना का बखान कर रहे थे तो कोई राजा का यशोगान करने में मस्त थे । इस प्रकार वह महाराजा श्रेणिक बड़े प्रानन्द से दल बल के साथ समवशरण में श्री वीतराग प्रभु की भक्ति, दर्शन, पूजन, स्तवन करने को निकला। ऐसा प्रतीत होता था मानों देवेन्द्र अपने समस्त स्वर्गीय वैभव के साथ ही भूलोक में विचरण करने आया हो । नरनारियाँ सर्वजन एक लक्ष्य को लिये थे "जिन भगवान का दर्शन ।" वस्तुतः जिनेश्वर का दर्शन संसार बंधन काटने को तीक्ष्ण कुठार है । सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने का अमोघ निमित्त है । मानस्थम्भ को देखते हो मान गलित हो जाता है, परिणाम विशुद्धि से सम्यग्दर्शन की जागृत्ति हो जाती है । सम्यग्दष्टि ही गंधकुटी में जाने की योग्यता रखता है। ऐसा हो यतिवृषभाचार्य ने अपने महान ग्रन्थ तिलोयपणत्ति में उल्लेख किया है। जिनभक्त परायण मण्डलेश्वर राजा श्रेणिक श्रानन्द विभोर
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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