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________________ श्रीपाल चरित्र पचम परिच्छेद ] दूतीं प्रति क्रुधा प्राहरे पापिन्याः खलाः किल । शीलवत्यः कथं नार्यास्सेवन्ते पुरुषान्तरम् ॥८२॥ वयार्थ - - ( धा) क्रोधित सभी ( दूतप्रति ) दूनी के प्रति ( प्राह ) बोली (रे) हे (पापन्याः) पापिनी ( खलाः) दुष्टनीयों (किल) निश्चय ही ( शीलवत्यः) शीलवती (नार्याः) नारिया ( पुरुषान्तरम् ) परपुरूष को ( कथम् ) कैसे ( सेवन्ते ) सेवन कर सकती हैं। [२९६ भावार्थ मदनमञ्जूषा क्रोध से लाल ताती हो गई । होती क्यों नहीं शील हो तो नारी का श्रृंगार है, जीवन है। भला उसके घातक बचन किस प्रकार उपेक्षनीय हो सकते हैं ? वह कहने लगी भरे यो पापनियों. दुष्टाओ तुम यह अयोग्य पापरूप बच्चन क्यों कह रही हो ? नारी का एकमात्र पति ही भोगने वाला होता है। क्या भला सती साध्वी महिलाएँ पर पुरुष सेवन कर सकती हैं ? नहीं नहीं कदापि नहीं। यह कार्य सर्वथा अनुचित है। मदनमञ्जूषा का बचन आज के मनचले विधवा विवाह पोषकों को विशेष ध्यान देने योग्य है । शील ही एकमात्र नारों के नारित्व का रक्षक है ||२|| और भी सुनो hea चलति स्थानात्सिन्धुर्मु चति वा स्थितिम् । अग्नि जलतामेति नत्र हानिस्सतीव्रते || ३ || अन्वयार्थ - - (वा) अथवा ( मेरुः ) सुमेरुपर्वत् (स्थानात्) अपने स्थान से ( चलति ) चलायमान हो जाय, (वा) अथवा (सिन्धु) जलधि ( स्थितिम् ) मर्यादा को ( मुञ्चति ) छोड़ दे (बा) अथवा (अग्नि) आग ( जलताम् ) जलरूप ( एति ) हो जाय तो भी ( सतीव्रतेः ) शीलव्रत की ( हानि ) हीनता (तंब ) नहीं हो सकती । भावार्थ-संसार नश्वर है । क्षणभङ्गुर है । श्रर्थात् संसार के समस्त पदार्थ परिणमनशील हैं परन्तु धर्म कभी भी चलायमान नहीं होता । धर्म और आत्मा ये दो ही सतत स्थिर रहने वाले हैं । शील नारी का धर्म है। भला उसमें परिणमम कैसे हो सकता है ? सती मदनमञ्जूषा कह रही है, अहो, दूतकर्म करते करते आप लोग बुद्धि, विवेक और ज्ञान शून्य हो गई | तुम्हें यह अटल समझना चाहिए कि कदाचित अचल सुमेरु पर्वत चल हो जाय, मर्यादित सागर कदाचित् अपनी सीमा का उल्लंघन कर बैठे, श्रग्नि भी धर्म व तन्त्र मन्त्र सिद्धि द्वारा शीतल हो जाय, परन्तु किसी भी काल में किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में शील धर्म चलायमान नहीं हो सकता । क्योंकि पतिव्रताओं को शील के सिवाय अन्य क्या हो सकता है ? एकमात्र शील ही उनका जीवन, पति पुत्र सन्तान, धन सम्पत्ति आदि सब कुछ है । कन्या के एक ही पति होता है ||३|| सर्वेषां मण्डनं शीलं स्त्रीणांचाऽपि विशेषतः । शीलहीना वृथा नारी कुक्कुरीवखरी यथा ॥४॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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