SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ---धवनसेठ को भेजी दुतियां सती पर असफल रंग चढाने का प्रयत्न करने लगीं। धूर्त मालिक हो तो दास-दासी क्यों न जालिम होंगे। वे सान्त्वना का ढोंग मचाने लगी, हमदर्दी दर्शाती हैं, दया वर्षाती हैं मानों, बड़े विनय और प्यार से शनैः शन: उसके पास जाती हैं ठीक ही है" मच्छर स्वभाव से प्रथम चरणों में प्राता है, पुन: ललाट पर जा डंक मारता है, कान में गुनगुनाता है।” दुर्जन का यही स्वभाव है । वे दूतियाँ भी उस सती से इसी प्रकार विष भग मधुर आलाप करने लगी । हे सुन्दरि ! आपका पतिदेव निश्चय ही सागर में जा गिरा है । इस अथाह जलराशि में क्या जीवन संभव है ? अवश्य ही वह मरण को प्राप्त हो गया होगा । मृत्यु से बचाने वाला कोई नहीं और भरे को जीवनदान दाता भी संसार में कोई न हुआ न हो सकता है। अतएव हे भद्रे निश्चित ही तुम्हारा पति अब वापिस नहीं आ सकता । उसके मिलन की आशा छोड । व्यर्थ शोक करने से भी क्या प्रयोजन ? तुम्हारा रूप लावण्य अद्वितीय है । यह यौवन काल है। भोगों को अमराई में रहने योग्य तुम्हारा कोमल, कमनोय, आकर्षक रूप है । सरस, मधुर इस यौवन काल को व्यर्थ ही निर्जन वन में विकसित सुवासित सुन्दर पुष्प के समान व्यर्थ मत करो। अर्थात एकान्त जन विहीन अटवी में गि बाला पुष्प किसी के भी उपभोग योग्य नहीं होता, व्यर्थ ही अपनी सौरभ विस्वेर कर नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार तुम्हारा नवयौवन रूपी पुष्प भी व्यर्थ न जाये इसके लिए उपाय करो। अच्छा है कि यह प्रवल सेठ रूप-लावण्य में तुम्हारे सदृश है, धन भी असीम है. युवक है, दाता है और भोगी भी है । हर प्रकार तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ है । अतः तुम आनन्द से इसके साथ भोग कर अपने यौवन को सार्थक करो । प्राप्त वस्तु को त्याग अप्रान के पीछ दौडना उचित नहीं। भला, बिचारो यह प्रोढावस्था ढल जाने पर क्या वापिस पा सकेगी? अच्छा तो यही है कि तुम अब शोक त्याग कर आनन्द से भोग कर जीवन और यौवन को सफल बनायो । सेठ को प्रसन्न करने में ही तुम्हारी कुशल और शोभा है । इस प्रकार दुतियों के पाप भरे, उभय लोकनिदित दुःख के कारण, नरक-निगोद के खुले द्वार सदृश बचनों को सुन बह महासती देवी तिलमिला उठी ।।७८ ७६ ८० ।। तत्समाकर्ण्य सा तासां पचनेन प्रपीडिता। दग्धादाथानलेनेव संसिक्ता क्षारवारिणा ।।१।। अन्वयार्य--(तत्) उस प्रपञ्च को (समाकर्ण्य) सुनकर (सा) बह सती (तासाम् ) दासियों के (वचनेन) वचनों से (प्रपीडिता) अत्यन्त व्यथित हुयी (इव) मानों (दावानलेन) दावाग्नि से (दग्धा) जली हुयी (क्षारबारिणा) खारे जल से (संसिक्ता) सींची गई। भावार्य--उन कुलटा दूतियों के शीलविहीन, व्यभिचार भरे पाप रूप वचनों को सुनकर शीलवती सती छटपटाने लगी । उसकी पीडा असह्य थी । उस समय की मनोव्यथा का कौन पार पा सकता है । आचार्य कहते हैं भयङ्कर दावानल से जले पर खार पानी सींचने के समान यह पीडा उसे व्यथित करने लगी। परन्तु सम्यक्त्व, शील की शीतल किरणें विवेक और घेर्य को जानत रखती हैं ॥८॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy