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________________ . ४३८] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद प्रातः मध्याह्न और सायंकाल ऐसा त्रिकालवर्ती सामायिक (स्वभावेन) बाराक से (गर्वणा". क्षयङ्करम् ) सम्पूर्ण पापों का क्षय करने वाला है। (जगन्हितः) जगत के लियो हितकर (अष्टम्यां चतुर्दश्यां ) मष्टमी और चतुर्दशी के दिन किया गया (उपबासो) उपवास (तथा) तथा (श्री शुक्लपञ्चम्यां व्रतं) शुक्लपक्ष को पञ्चमी का व्रत (सुखराशिदं) सुखराशि को देने वाला है। मायार्थः- प्रती श्रावकों को नियमित रूप से प्रतिदिन सामायिक करनी चाहियो । सामायिक का स्वरूप श्री अमृचन्द्र स्वामी ने इस प्रकार बताया है - "रागद्वेषत्यान्निखिल द्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ।।" रागद्वेष रूप प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर इष्ट अनिष्ट सभी पदार्थों में साम्य भाव रखना सामायिक है यही आत्मतत्त्व को प्राप्ति का बीज है मुख्य कारण है । सामायिक प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं-- चतुरावतंत्रितयश्चतुः प्रणाम: स्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ॥१३६ नं. श्लोक। चारों दिशाओं में तीन तीन पावत और एक एक प्रणाम करने वाला श्रावक यद्यपि संयम स्थान को नहीं पाता है फिर भी मूर्खा रहित होने से मुनि के समान वह जगासन अथवा पक्षासन लगाकर, मन, वचन, काय तानों को शुद्ध रयता हुया सुबह दोपहर और मनच्या तीनों समय सामायिक करने वाला सामाधिक प्रतिनाधारो है। चार शिक्षायतों में भी मामायिक नामक शिक्षा व्रत है जिसका लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार बनाया है आस मय मुक्तिमुक्त पञ्चाघानामशेष भाबेन । सर्वत्र च सामयिका: सामयिकं नाम शंसन्ति ।। सामयिक स्वरूप जोगणधर ग्रादि देव हैं उन्होंने मन, वचन. काय. कात. कारित ग्रीर अनुमोदना से सामायिक के लिये निश्चित समय तक पाँचो पापों के त्याग करने को सामायिक शिक्षाव्रत कहा है । सामायिक शिक्षा प्रत और सामायिक प्रतिमा में साहचर्य है ये एक दूसरे के पूरक हैं जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा बताये गये उक्त सामायिक व्रत का यथाविधि पालन करना चाहिये । यह सामयिक समस्त पापों का क्षय करने वाला है । पुन: उस सामायिक के द्वारा डाले गये संस्कार को स्थिर सुरू करने के लिये प्रत्येक अष्टमो और प्रत्येक चतुर्दशी को उपवास भी अवश्य करना चाहिए । जगत् के प्राणियों के लिये सर्वप्रकार से हितकारी उपवास को प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये । इन्द्रिय दमन और कयासों के शमन का कारण होने से उप- वास को हितकर कहा है। इसी प्रकार श्रेष्ठ सुखराशि को देने वाला शुल्कपक्ष की पञ्चमो का व्रत भी हमारे लिये सर्वप्रकार हितकर है। ये सभी व्रत आत्मविशुद्धि में साधक हैं ।३८, ६।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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