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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
भोगोपभोगवस्तूनां श्रावकाचार चंचुभिः।। सदासंख्या प्रकर्तध्या परमानन्दवायिनी ।।४।। पात्र दानं सदा कार्य कार्यकोटिविधायकम् । येन जीवो भवेत् नित्यं सुखी चात्र परत्र च ।।४१॥
अन्वयार्थ ----(श्रावकाचार चंभिः ) श्रावकाचारनिष्ठ विवेकशील श्रावकों को (परमानन्ददायिनी) परमानन्द का देने वाला (भोगोपभोग वस्तूनां संख्या) भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण रूप व्रत (सदा प्रकर्तव्या) सदा अर्थात् अवश्य करना चाहिये तथा कायकोटिनिया प्रकारको कार्यो काद्ध करने वाला (पात्रदानं) पात्रदान (सदा काय) सदा करने योग्य है अर्थात् करना चाहिये । (येन जीवो) जिससे जीव (अत्र परत्र च) इस लोक और परलोक में (नित्यं) सदा सुखी भवेत् । सुखी रहता है।
भावार्थ -जो त्रस हिंसा से विरत और स्थावर जीवों की भी हिंसा से बचने के लिये निरन्तर प्रयत्नशोत्र हैं ऐसे विवेकशोल, श्रावकाचार में सावधान श्रावकों को भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमारा भी अवश्य करना चाहिये यह भोगोपभोग परिमारण व्रत, सन्तोष भाव का जागृत करने वाला, परम ग्रानन्दकारी है प्रयत्न पूर्वक इसका पालन करना चाहिय । इसी प्रकार पान को दिया गया दान भी करोड़ों श्रष्ठ मधुर फल को देने वाला है हमारे जीवन को इस लोक में परलोक में भी सुखी बनाने वाला है। किन्तु पात्र किसे कहते हैं यह विषय विचारणीय है। मोक्ष के कारण रूप गण-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इनका संयोग हो ऐसे अविरत सम्यग्दष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, धिरताविरत-देशविरत पंचमगुण स्थानवती और सकल विरत-छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज-ऐसे तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं। इस प्रकार पात्र का सामान्य लक्षण यह है कि जिस आत्मा में मोक्ष की कारणता उपस्थित हो अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीनों की प्रगटता जिस प्रात्मा में हो चुकी है अथवा केवल सम्यग्दर्शन ही प्रगट हो चुका हो वही आत्मा पात्र कहा जाता है। आहार दान, अभयदान, औषधदान और ज्ञानदान-ये चार प्रकार के दान हैं । पात्र को दिया गया दान, इह लोक और परलोक दोनों भवों में जीव को सुख देने वाला है। प्रतः श्रावकों को पात्र दान अवश्य करना चाहिये । कहा है-"नादाने किन्तु दाने हि सतां तुण्यन्ति मानसः" मत्पुरुषों को लेने में नहीं देने में प्रानन्द का अनुभव होता है, सन्तोष होता है । जो दान देकर हर्षित होता है वही श्रेष्ठ दाता है । पुनः दाता और पात्र के साथ देने योग्य सामग्नी भी उत्तम होनी चाहिये । प्राचार्य कहते हैं -
"रागद्वेषा संयम मद दुःख भयादिकं न यत्कुरुते ।
द्रव्यं तदेव देयं सुतप: स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।।१७० पुरुषा।।
जो पदार्थ राग ऐष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि को नहीं करता है तथा सुतप और स्वाध्याय की वृद्धि करने वाला हो, बही द्रव्य देने योग्य है । अर्थात् जो सयम का घात न करे ऐसा द्रव्य पात्र को देना चाहिए ।।४०, ४१॥