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________________ 660] [श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद पुण्यवभिरत्रोच्चः दातृसप्तगुणान्वितः । बदात्याहारदानं ये पात्रेभ्यो बहुभक्तितः ॥४२॥ ते भष्यास्सारसौख्यानि देवेन्द्रादि पदं तथा । संप्राप्य क्रमतो नित्यं प्राप्नुवन्ति सुखं परम् ।।४३॥ अन्वयार्थ---(अत्र) यहां (उच्चः नवभिः पुण्यः) श्रेष्ठ नवधाभक्ति पूर्वक (दातृसप्तगुणान्वितः यः) सात गुणां से सहित को बहभक्तित:) प्रांत भक्तिपूर्वक (पात्रेभ्यः) पात्र के लिये (पाहारदानं) आहार दान (ददाति) देते हैं (ते भव्या:) वे भत्र्यपुरुष (मार सौख्यानि) सारभूत उत्तम सुखों को (तथा) तथा (देवेन्द्रादि पर्द) देवेन्द्र आदि के पद को (संप्राप्य) प्राप्त कर (ऋमतो) क्रमशः (नित्यं परं सुस्त्रे) स्थाई मोक्ष सुख को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ--सर्व प्रथम यहां दान देने की विधि बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि उत्तम पात्रों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार देना चाहिये । उत्तम पात्र को पड़गाहन करना, उन्हें ऊंचा आसन देना, उनके पद प्रक्षालन करना, पूजा करना, प्रणाम करना, मन: शुद्धि रखना, बचन शुद्धि रखना, काय शुद्धि रखना और भोजन की शुद्धि रखना यही नवधा भक्ति है अथवा दान देने की विधि है । इस प्रकार विधिपूर्वक प्राहार दान करना ही श्रावक का मुख्य कर्तव्य है । मोक्षशास्त्र में कहा है-विधि द्रव्यदानृपात्र विशेषात् । तद्विशेष:-विधि, द्रव्य, दातृ, पात्र को विशेषता से दान में विशेषता पाती है । द्रव्य कैसा होना यह पूर्व श्लोक में बता चुके । अब दाता कैसा होना, यह बताते हुए आचार्य कहते हैं श्रेष्ठ दाता वही है जो सात गुणों से युक्त हो । दाता के सात गुण इस प्रकार हैं "ऐहिकफलानपेक्षा क्षांतिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ।।पुरुषा १६६।। (१) इसलोक और परलोक सम्बन्धी फल की अपेक्षा नहीं करना अर्थात् दान देकर उसके फलस्वरूप मुझे लोक प्रतिष्ठा, यश, उत्तम इन्द्रादिका पद मिले इस प्रकार की वाञ्छा नहीं करना यह दाता का प्रथम गुण है। (२) पूर्ण क्षमा भाव होना किसी निमित्त से मुनियों का अन्तराय हो जाने से, किसी सामग्री की न्यूनता हो जाने से, अथवा बहुत लेने वाले हैं किस किस को हूँ इत्यादि प्रकार से क्रोध नहीं उत्पन्न होना चाहिए। (३) मायाचार नहीं होना चाहिये, किसी प्रकार की अशुद्धि रह जाने पर वचन से यह कहना कि हाँ, सब शुद्ध है, वाक्कपटता है । मन में कोई भाव हो उसे प्रकाश में दूसरे रूप से ही दिखा देना यह मन की कपटता है । मुख्यता से कपटवृत्ति मन में ही होती है । उसी का प्रयोग वचन वा काय द्वारा किया जाता है। माया एक शल्य है, यह दाता के गुणों का लोप
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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