________________
श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
1४३७ को सुरक्षा वा विशुद्धता के लिये परिधि के समान दिग्वत, देशनत और अनर्थदण्ड व्रत्त ये तीन दिग्द्रत हैं इनका पालन भी प्रयत्न साध्य है। जीवन पर्यन्त के लिये दनों दिशात्रों में प्राने जाने की मर्यादा कर लेना दिग्वत है । पुन: दिग्नत में की गई मर्यादा में भी यथाशक्ति गमनागमन का नियमित काल के लिये त्याग करना अर्थात उसमें भी यह नियम करना कि मैं इतने समय तक अमुक ग्राम, नगर, गली या मुहल्ल के बाहर नहीं जाऊँगा- यह देश व्रत है । दिग्वत पार देशव्रत धारो श्रावक के त्यक्त क्षेत्र संबंधी समस्त प्रकार की हिंसाओं का त्याग हो जाने स उपचार से महानतपना प्राप्त है क्योंकि अहिंसा की पवित्र भावना से उसका चित्त निर्मल है । इसी प्रकार बिना प्रयोजन पापास्रव की कारणभूत त्रियाओं का त्याग कर अनर्थदण्डवत है । जैसा कि आचार्य आगे बताते हैं ॥३॥
वृथा विराधना हेया पञ्चस्थायर केषु च ।
जीवाहारी तथा जोचो नैव पोष्यो बुधोत्तमः ॥ ३७॥ अन्वयार्थ-(पञ्चस्थावरकेषु च ) पञ्च स्थावरों की भी विथा) व्यर्थ में (विराधना हेया) विराधना नहीं करनी चाहिए (जीवाहारी जीवों) मांसाहारी जीव (बुधोत्तमैः) विवेकशील श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा (नैव पोष्यो) सर्वथा अपोषणीय हैं अर्थात इनका पोषण करने से हिंसा का ही पोषण होता है अत: यं अपालनीय है । कुत्ता, बिल्ली आदि हिंसफ जींचों को अपने घर में नहीं पालना चाहिये ।
भावार्थ-थावकों को निरन्तर अहिंसा की भावना को प्रधानभूत समझते हुए हर प्रकार के अनर्थ दण्ड का त्याग करना चाहिये । यद्यपि श्रावक मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी है वह त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा नहीं करता है और स्थाबर हिंसा का प्रत्यागी है । पर उसे व्यथं में स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करनी चाहिये और आरम्भी हिंसा, उद्योगो हिंसा तथा बिरोधी हिपा को भी अल्प अल्पतर करने का प्रयास रखना चाहिये । आरम्भ, उद्योग आदि के द्वारा त्रस जीवों का भी घात हो जाता है अतः प्रत्येक कार्यों को समिति पूर्वक विवेक पूर्वक करना चाहिये जिससे बस जीवों की हिंसा नहीं होवे और बिना प्रयोजन हरी घाँस पर चलना, पत्तियों को तोड़ना, पानी ढोलना, पंखा चलाना तथा अग्नि व्यर्थ में जलाकर छोड़ देना इत्यादि कार्य नहीं करना चाहिये ये सभी अनर्थदण्ड हैं, विशेष पापास्रव के कारण हैं ॥३७॥
सामायिक व्रतं पुतं पालनीयं जिनोक्तिभिः । ने द्वित्रिसंध्यं स्वभावेन सर्वपापक्षयंकरम् ॥३८॥
। अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासो जगद्धितः ।
तथा श्रीशुक्लपञ्चम्यां वृतञ्च सुखराशिदं ।।३६॥
अन्वयार्थ-(जिनोक्तिभिः) जिनेन्द्र कथित (पूत) पवित्र (सामायिकं बत) सामायिक व्रत को (पालनीयं) पानना चाहिये (द्वित्रिसंध्यम्) प्रात: और सायंकाल दो बार प्रथचा