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________________ ४३६ ] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद मंगौड़ी, पापड आदि की मर्यादा भी २४ घण्टे की ही है अर्थात् २४ घण्टे के बाद ये चीज अभक्ष्य हो जाती हैं । अष्ट मूलगुरण के धारी श्रावकों के लिये असेवनीय हैं ||३४|| कन्दमूलं च संधानं पुष्पशाकं च वर्जयेत् । कालिङ्ग नवनीतं च संत्यजन्तु विवेकिनः || ३५।। अन्वयार्थ – (कन्द मूल ) मूली गाजर आदि कन्दमूल (संधानं) अचार ( पुष्पशाकं व ) पुष्प और हरी पत्तियों का शाक ( वर्जयेते) नहीं खाना चाहिये ( विवेकिनः ) विवेकी पुरुष ( कालिङ्ग ) तरबूज (त्र) और ( नवनीतं ) मक्खन का ( संत्यजन्तु ) त्याग करें । भावार्थ -- कन्दमूल, साधारण वनस्पति में गर्भित हैं अर्थात् इनमें एक शरीर में अनन्त जीवों का समान रूप से निवास रहता है। जैसे एक बालू या माजर है तो उसमें भी अनन्त जीव हैं और उसको खाने से अनन्त जीवों के घात का पाप लगेगा | अचार भी जितना पुराना होगा उतनी ही अधिक जीव राशि उसमें उत्पन्न हो जाती है अतः अनन्त त्रसजीवों की उत्पत्ति उसमें हो जाने से मांस भक्षण का दोष लगता है, पुष्प अर्थात् फूल भी अभक्ष्य हैं किन्तु लवङ्ग, जावित्री, गिलावा, नागकेशर, और केशर ये पाँच प्रकार के फूल प्रासुक हैं धतः इनको छोड़कर सभी प्रकार के फूलों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिये, वे अभक्ष्य हैं। हरी पत्तियों में जिनका शोधन अशक्य है ऐसी पत्तियों को भी नहीं खाना चाहिये, वे भो अभक्ष्य हैं। तरबूज भी अभक्ष्य पदार्थों में गर्भित है की हुकी है यही तिलने के बाद अन्तर्मुहूर्त से पहले, उसे खा सकते हैं उसके बाद उसमें उस जीव पैदा हो जाते हैं और वह अभक्ष्य हो जाता है । भिप्राय है कि अहिंसाण व्रत की रक्षा तथा अष्टमूल गुणों की विशुद्धि के लिये श्रावकों को भी भक्ष्य भक्ष्य का विचार करते हुए भोजन करना चाहिये। जिनके भक्षण से श्रनन्त जीवों का घात' होता है ऐसी वस्तुओं का सर्वथा त्याग करना चाहिए ||३५|| · दिग्ग्रतं च यथाशक्तिर्देशव्रतमनुत्तरम् । ये घरन्ति महाभव्यास्ते तरन्ति भवारयिम् ॥१३६॥ श्रन्वयार्थ - ( ये महाभव्याः ) जो निकट भव्य ( दिग्त्रत ) दिग्बत (च) और (यथाशक्तिः अनुत्तरं देशवृतं) यथाशक्ति श्रेष्ठ देवत्रत को ( धरन्ति ) धारण करते हैं (ते) वे ( भवाविम्) संसार रूपी समुद्र को ( तरन्ति ) पार कर जाते हैं । भावार्थ - अणुव्रतों की तरह दिव्रत, देशव्रतादि भी प्रयत्नपूर्वक पालनीय हैं। पुरु पार्थं सिद्ध पाय में श्राचार्य लिखते हैं 1 परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्तिशीनानि । व्रतपालनाय तस्मात् शीलान्यपि पालनीयानि ॥ जिस प्रकार परिधि ( बाउंडरी) नगर की रक्षा के लिये होती है उसी प्रकार ण व्रतों
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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