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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१५६ हैं । परनारी उनकी दृष्टि में भयङ्कर विष रो भरी सर्पिणी समान होती है। जिस प्रकार सपिरणी को देखते ही दूर से उसका परिहार कर दिया जाता है, उपाय पूर्वक उससे बचने का प्रयत्न करते हैं उसी प्रकार शीलवती सदाचारी, परनारी का त्याग कर उससे बचने का प्रयत्न करते हैं । पुरुषों को हो नहीं महिलाओं को भी इसी प्रकार पर पुरुष का विषधर सर्पवत् दूर से ही परिहार करना चाहिए ।।२६।। इसी भाव का निम्न श्लोक है-- कुलस्त्रीभिस्तथालोक्य, कामदेवाकृतिसदा । 'परो नराः परित्याज्या, भ्राता तातोऽयमित्यलम् ॥३०॥ अन्वयार्थ--(तथा) उसी प्रकार (कुलस्त्रीभिः) कुलीन नारियों द्वारा (कामदेवाकृति) कामदेव सश रूपलावण्य बाला भी (परो नरः) पर पुरुष (सदा) निरन्तर (अर्थ) यह (भ्राता) भाई है (ताता पिता है (इति) इस प्रकार (ग्रालोक्य) देखकर-जानकर (परित्याज्या:) त्यागने योग्य है (इत्यलम्) अधिक क्या कहें ? भावार्थ-ब्रह्मचर्याण व्रती पुरुष को जिस प्रकार परस्त्री सेबन दुःख ताप एवं पार होता है उसी प्रकार पर पुरुष अभिलाषिणी कुलटा नारियाँ महापापिनी उभयलोक में नाना दुःस्त्र भोगती हैं। इस लोक में बध-वन्धन आधि, व्याधियों की शिकार बनती हैं, परलोक में दुर्गतियों में पडकर छेदन-भेदनादि काष्ट भोगती हैं । नरकों की वेदना सहती हैं, गरम-गरम जलती यी परुषाकार लोहे के गोलों से चिपकायी जाती हैं। इस प्रकार नाना यातनानों की पात्र होती हैं । अतः बामदेव के समान भी पर पुरुष को भाई, पिता समान मानना चाहिए । कैसा भी सुन्दराकृति क्यों न हो पर पुरुप भयङ्कर विषधर (सर्प) समान त्यागने योग्य है ।।३०।। शीलं सौरव्यकर प्रमोदजनक शीलं कुलोद्योतकम । शीलं सार विभूषणं, गुरणकर, शीलं च लक्ष्मीकरम् ॥ शीलं सुव्रतरक्षणं, शुभकर, शीलं यशः कारणम् । तस्मात्पुत्रि बुधा जिनेन्द्र कथित शीलं श्रयन्ति त्रिधा ॥३१॥ अन्वयार्थ प्राचार्य शीलधर्म की महिमा निरूपण कर रहे हैं (शीलम्) (प्रमोद जनकम् ) आनन्द उत्पन्न करने वाला, (सौख्यक) सुखी करने वाला. (कुलोद्योतकरम ) कुल को प्रकाशित करने वाला (शीलम ) शीलवत है। (शीलम) शील ही (गुणकरम ) श्रेष्ठ मानवोचित गुरणों को प्रकट करने वाला (सार विभूषणम् ) वास्तविक आभूषण है, (शीलं) शील हो (लक्ष्मीकरम ) नानाप्रकार सुख साधक लक्ष्मी प्राप्त कराने वाला (च) और (शील) शील ही (सुव्रतरक्षणम् ) श्रेष्ट नतों का रक्षण करने वाला (शुभकरम्) पुण्योत्पादक, है तथा (यश:) कीति का (कारणम ) कारण (शीलम ) शील ही है, (तस्मात् ) इसलिए (पुत्रि) हे बेटी मैंना ! (बुधाः) विद्वान लोग (जिनेन्द्र कथितम ) जिनदेव कथित (शीलम ) ब्रह्मचर्यव्रत को (विधा) मन, वचन, काय से (श्रयन्ति) आश्रय करते हैं ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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