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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद मावार्थ-इस शीलवत का माहात्म्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उसका वर्णन साधारर्णतः हो नहीं सकता । तो भी यहाँ कुछ वर्णन किया है। आचार्य कहते हैं हे पुत्रि! यह शीलव्रत या ब्रह्मचर्याण ब्रत समस्त आनन्द, सुखों का प्रदाता है। स्वर्ग-मोक्ष के सुख इसी से प्राप्त होते हैं । यह मानव का श्रृंगार है, नारियों का आभूषण हैं, सत्यादि अनेक गुणों का उत्पादक है । सभी व्रतों की स्थिति इसी ब्रत के रहते होती है। पुण्यानुबन्धी पुण्य का यह निमित्त है। यशोपताका फहराने वाला है। दुःकार्यों को भी सरल बनाने वाला है अग्नि का जल भी बनाने की इसमें सामर्थ्य है लौकिक-पालौकिक लक्ष्मी का यह प्रदाता है। जिनेन्द्र भगवान श्री सर्वज्ञ द्वारा कथित है अतः इसमें संदेह नहीं है। इसीलिए चतुर विद्वान सज्जनजन इस शीलव्रत को अमूल्य कण्ठहार समान धारण करते हैं । हे पुत्रि ! तुम भी इसे धारणकरो। तुम्हारे सर्वकार्य अनायास सिद्ध होंगे। समस्त दुःख-तापादि नष्ट होंगे। तुम सुख सौभाग्य की अधिष्ठात्री बनोगी ।।३१॥ इति अब परिग्रह परिमाण पाँचवे प्रण व्रत का लक्षण कहते हैं
प्रत्यक्षा सोशिल्प, श्रापमा परिग्रहे।
तदण व्रतमाम्नांतं, पञ्चमं पूर्वसूरिभिः ॥३२॥
अन्वयार्थ - (यत्) जो (परिग्रहे) परिग्रह के विषय में (श्रावकानां) श्रावकों का (नित्यम ) हमेशा (प्रमाणम) प्रमाण (भवेत्) होवे-होता है (तद् ) उसे (पूर्वसूरिभिः) पूर्वाचार्यों द्वारा (आम्नातम ) आगमपरम्परा से (पञ्चमम.) पांचवां (अणु शतम् ) अणु व्रत (उक्तम) कहा है।
भावार्थ-तृष्णा एवं लोभ का संवरण करने के लिए प्रतीश्रावक, परिग्रह के विषय कुछ मर्यादा या सीमा करता हैं । "मैं अमुक प्रमाण में धन-धान्यादि अपने पास रक्खू गा" इस प्रकार का व्रत लेना परिग्रहप्रमाण अणुव्रत कहा जाता है। ऐसा परम ऋषियों का कथन है । आगमानुसार इस व्रत का धारी सीमा से बाहर के पहिग्रह का सर्वथा त्यागी हो जाता है अत: उससे उत्पन्न पाप से वह बच जाता है ।।३२॥
संख्यां विना न संतोषो जायते भुवि देहिनाम् ।
तस्माद् भव्यः प्रकर्तव्याः सा संख्या सर्ववस्तुषु ॥३३॥
अन्वयार्थ --(भुवि ) संसार में (देहिनाम) मनुष्यों को (संख्याम ) संख्या प्रमाण किये (बिना) बिना (संतोषः) संतोष (न) नहीं (जायत) हाता ह ।
सलिए (भव्यः) भव्यजीवों को (सर्ववस्तुधु) समस्त पदार्थों में (सा) वह (संख्या) गिनती-प्रमाण (प्रकर्तव्याः) करना चाहिए।
भावार्थ--पदार्थों का प्रमाण किये बिना शरीरधारियों-मनुष्यों को संतोष प्राप्त नहीं होता । सन्तोष विना सुख नहीं मिलता । अतः सुखार्थियों को संतोष करना चाहिए । संतोष