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________________ ३८० । [ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद - अन्वयार्थ -(परमानन्दनिर्भरा) अत्यानन्द से आनन्दिता (मदनसुन्दरी) मैनासुन्दरी ने (श्रीपालश्रुतिम् ) श्रीपाल प्राणनाथ की वाणी (आकर्ण्य) सुनकर (द्वारम ) दरवाजा (उद्घाटयामास) खोला। भावार्थ -"ह मा ! आपका दुलार। पुत्र यही सेवा में उपस्थित है" इस वाणी को सुनते ही माता और भार्या के हर्ष की मीमा न रही। अविलम्ब सुन्दरी ने उठकर द्वार खोल दिया । द्वार खुलते ही समक्ष महासती मैंनासुन्दरी पर-दृष्टि पड़ी । किन्तु सद्बुद्धि विवेक का त्याग नहीं करती लोकव्यवहार और गुरूजनों को मर्यादा का पालन करना सुबुद्ध मानब का परम कर्तव्य है । तदनुसार प्रथम मातृधरण वन्दन करता है ।।१२२।। सन्मार्ग वा मुनेर्मेधा सारशर्मविधायका । तदा श्रीपाल भूपालो मातुः पादाम्बुजद्वयम् ॥१२३॥ ननाम परया प्रीत्या कुर्वन् सन्तोषमुत्तमम् । सत्यं सन्तोष कर्तारः सुपुत्राः कुलदीपिकाः ॥१२४॥ अन्वयार्थ--(वा) जिस प्रकार (सारशर्मविधायका) यथार्थ सुख विधायक (मुने:) मुनिराज की (मेधा) बुद्धि (सन्मार्गम् ) सम्यकमार्गानुगामिनी होती है उसी प्रकार (तदा) उस समय (श्रीपाल भूपाल.) श्रीपाल राजा ने (उत्तम) श्रेष्ठ (सन्तोषम् ) सन्तोष (कुर्वन ) करते हुए (परया) महा (प्रीत्या) प्रीति से (मातु:) माता के (पादाम्बुजद्वयम् ) चरण कमल युगल में (ननाम) नमस्कार किया (सत्यम) ठीक ही है (सन्तोवकारः) सन्तोष करने वाले (सुपुत्राः) उत्तम पुत्र ही (कुलदोपिका:) कुल प्रकाशक होते हैं । भावार्थ-इन फ्लोकों में सामाजिक लोक मर्यादा का जीवन्त चित्रण किया है। पञ्चेन्द्रियों के विषय सेवन करते हुए कुलमर्यादा की रक्षा करते हुए क्रिया करता है वही विवेकी है। विषयान्ध मान मर्यादा का उल्लंघन कर देता है। श्रीपाल को द्वार खुलते ही समक्ष महासती. विनयावनता उसकी प्रिया दिखती है । इसी की प्रेमडोरी से वलात् खिंचकर आया था, परन्तु तो भो उसमें सन्तोष कम न हुआ । यद्यपि चाहता तो प्रथम प्रिया का पालिङ्गण कर सकता था, किन्तु यह लोक दृष्टि में अशोभन और अभद्र होता। अतः अपने प्रेम में वह अन्धा नहीं हुआ। पूर्ण सावधानी से मुनिराज की सद्बुद्धि के अनुसार योग्य कार्य में प्रवृत्त हुआ । अर्थात् जिस प्रकार उत्तम ज्ञानी मुनिराज की बुद्धि सांसारिक पदार्थों में न जाकर तत्वविवेचन में सन्मार्ग में ही जाती है, उसी प्रकार जिनधर्मज्ञाता श्रीपाल की दृष्टि जन्मदात्री जननी--माँ के चरणों में जा पहुँची अत्यन्त प्रीति, भक्ति, विनय और आदर से उसने अपनी माने प्रवरो के दोनों चरण कमलों में नमस्कार किया । अत्यन्त सन्तोष से माता की चरणधूलि मस्तक पर चढ़ायी । सत्य ही है सन्तोषी पुत्र ही संसार में कुल के दीपक होते हैं । अर्थात् कुल को प्रकाशित करने बाले पुत्र ही प्रदीप होते हैं ।।१२३, १२४।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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