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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
[३६६ जिनवाणी (च) और (गुरुपादाम्भोजद्वयम ) गुरुदेव के उभयचरण कमलों को (अपि) भो (महास्तोत्रः) उत्तम स्तोत्रों द्वारा (स्तुत्वा) स्तुति करके (नत्वा) नमस्कार करके (जिनेश्वरम्) (जिनराज प्रभू को (जाप्यैः) जपद्वारा (जप्त्वा) जाप करके (ततः) पुनः (गिरेः) पर्वत से (समुत्तीर्य) उत्तर कर (महादानादिकं दत्वा) महा दानादि देकर पुनः (धीमान्) उस बुद्धिमान ने (पात्रदानादिपूर्वकम् ) सत्पात्रदानादि सहित (सज्जनः संयुतः) सत्पुरुषों सहित (पारणाम् ) पारणा (विधाय) करके (ततः) इसके बाद (सर्वगुणाकरः) सर्वगुणयुक्त उस श्रीपाल ने (उच्च:) अत्यन्त (महाभूत्या) महाविभूति से (परमानन्दनिर्भरः) परम प्रमोद से भरे उसने (सौराष्ट्रदेशभूमीशकन्याः पञ्चशतानि) सौराष्ट्रदेश के भूपति की पांच सौ कन्याओं को (परिणीय) विवाह कर (च) और पुनः (महान्तम्) अत्यन्त (गर्वलक्ष्मादयम्) अहंकार रूप लक्ष्मी से भरे (अहिछत्राधिपम् ) अहिक्षेत्र के अधिपति (शक्त्यारिदमनाओं यम) शक्ति से यथार्थ नाम अरिदमन राजा को (ससाधन: ) योग्य साधनों से (असौ) इस नृप श्रीपाल ने (ससाघ) जीतावश किया।
मावार्थ यहाँ आचार्य श्री ऊर्जयन्त गिरि का जीवन्त, यथार्थ मनोहर वणन करते हैं । मुक्ति और भुक्ति का दाता यह महापवित्र क्षेत्र अत्यन्त अनोखा और रमणीय है। भव्य जीवों को परमसुख देने वाला है। ऐसा प्रतीत होता है मानों सिद्धशिला का ही अंश हो । नाना प्रकार की अमोघ वनस्पतियों का भाण्डार है। निर्भरणों से कल-कल निदान करती हुयी स्वा, गिल जाम महती है जामका को साप्रक्षालन की प्रेरणा दे रही हो । वह पर्वतराज वीतराग मुनिराज के मन के समान विकार रहित परम पावन था। उसे अवलोकन कर उसका हृदय आनन्द से भर गया मानों कोई अद्ध त निधि ही प्राप्त हथी हो। वह उत्साह
और उमङ्ग से उस गिरिराज पर समस्त रानियों एवं अन्य समस्त परिजनों सहित पारोहित हुआ । बहां सुर-असुरों मे सचित-पूज्य श्री नेमिनाथ जिनेश्वर प्रभु के दर्शन किये । उसी दिन फाल्गुनमास का आष्टाह्निक महापर्व आ पहुँचा । अतः श्रीपाल भूपति ने अपनी पत्नियों सहित नहीं आय दिन पर्यन्त विराज कर सैकडों महोत्सवों के साथ इस महापर्व को मनाया । पञ्चामृतों के महा प्रवाह से कान्ताओं सहित श्रीमन्नेमीश्वर जिन का महामस्ताभिषेक किया । पुन: क्रमशः विधिपूर्वक सुगन्धित निर्मल जल से, उत्तम मलयागिरिचन्दन से, अखण्ड स्वच्छ अक्षतों से नाना प्रकार सुवासित पुष्पों से, दुःखनाशक मधुर चरुओं से, रत्न, कञ्चन के कर्पूर ज्योति सहित दीपों से, कालागरु आदि को सुगन्धित धूप अग्नि में खेकर, धूप से, श्रीफल, आम, जम्बीर, आदि समधुर, सुपक्व फलों से मुक्ति प्रदायी पूजा की। तथा अर्घ्य उत्तारण कर श्री नेमिश्वर प्रभ की महाभक्ति से अर्चना की । प्रभु के चरण-कमलद्वय में बार-बार अर्घ्य उतारण किया । इस प्रकार सोपचार पूजा को । अपनी प्रियाओं के साथ सुख को देने वाले सिद्धचक्र की सम्यक् आराधना की । तदनन्तर सुखदायक शास्त्र पूजा कर गुरुचरणम्बुजद्वय की भक्ति
व से पूजा की। महास्तोत्रों से भगवान की स्तति कर, नमस्कार कर तथा जाप जपकर पर्वत से नीचे उतर कर महादानादिक देकर, सत्पात्रों को आहारादि दान देकर पुनः समस्त साधर्मीजनों से सयुक्त हो पारगणा किया । गुणसागर उस श्रीपाल ने वहाँ से प्रस्थान करने का बिचार किया। प्रस्थान के पूर्व उसने सौराष्ट्र नरेश की पांचसौ कन्याओं के साथ महाविभूति,