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________________ ३७०] [श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद परमानन्द और महामंगल पूर्वक पाणिग्रहण किया । पुन: अहिछत्र का अधिपति जो अपने बल के मद से उन्मत्त हो रहा था । शक्ति के अनुसार ही जिसका अरिदमन नाम विख्यात था उस पराजित उसको मदलक्ष्मी का दमन किया । अनेकों अनुकूल साधनों से वश में किया। ___ यहाँ सम्यष्ट का लक्षण हमारे सामने सट उपस्थित होता है । जिस समय आत्मशोधन और कटुकर्मों के संहारक देव, शास्त्र, गुरु की पूजा, भक्ति, स्तुति, गुनगान करता है तो संसार, भोग, विषय कषायों को भूल जाता है । स्तुति किसे कहते हैं ? इसका समाधान करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामी श्री अरहनाथ भगवान की स्तुति में कहते हैं --- गुरण स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्व कथा स्तुतिः । प्रानन्त्यात्तंगुणा वक्त मशक्यास्त्त्वयि सा कथम् ।। तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीतनस्ततो व याम किञ्चन ।। अर्थात् विद्यमान अल्पगुणों का उलंघन कर विशेषगुणों का कथन करना स्तुति कल्लाती है । अर्थात् कुछ मुणों को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर कहना स्तुति कहा जाता है किन्तु हे भगवन ! आपके गुण तो अनन्त हैं फिर बढाना-चढाना किस प्रकार हो सकता है । तो भी हे मुनीन्द्र ! आपका नाम मात्र लेना या कथन करना भो पुण्य वृद्धि का कारण है । इसलिए हे प्रभो! मैं कथन करता है। इसी प्रकार श्रीपाल जी श्री नेमिनाथ भगवान का गमगान कर पाप नाश और पुण्यार्जन कर चल पड़े। पुण्य से असाध्य भी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः अरिदमन जैसे महावीर को जोतने में उसे तनिक भी कलेश नहीं हुअा ।।८२ से १४।। मान भङ्गन सम्प्राप्य वैराग्यं शिवकारणम् । स वैरिदमनाख्यो स्वानुजे राज्यं वितीयं च ॥६५।। यशोधर मुनि विश्वहितं नत्वा शिवाप्तये । जग्राह परया शुध्या जगद्वन्ध सुसंयमम् ॥६६।। मन्वयार्थः- (मानभङ्गन) पराजित होने से (सः। वह अरिदमन (शियकारणम्) मुक्ति का कारणभूत (वैराग्यम्) बैराग्य (सम्प्राप्य) प्राप्त कर (वैरिदमनाख्ये) वैरीदमन नामक (स्वानुजे) लघुभाई को (राज्यम्) राज्य (वितीर्य) देकर (विश्वहितम्) जग के हितकारी (यशोधरमुनिम्) यशोधर नामक मुनि को (नत्वा) नमस्कार कर (शिवाप्तये) मोक्ष के लिए (जगद्वन्द्य) विश्ववन्द्य (सुसंयमम्) उत्तम संयम को (परयाशुध्या) उत्तम शुद्धि से (जग्राह) धारण किया । भावार्थ-संसार के दुःखों में “मानभङ्ग" सबसे बड़ा कष्ट है । मानखण्डित होने पर, मूर्ख प्रात्मघात और ज्ञानो वैराग्य धारण कर लेता है । अर्थात् मानभङ्ग करवा कर जीना मरना ही है । अस्तु अरिदमन का श्रीपाल द्वारा मानभङ्ग हुअा । उसे एक क्षण पूर्व जो राज्य -
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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