SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद] स्वत्प्रिया सा ततश्च्युत्वा, भ्रान्त्वा काश्चिद्भवान् पुनः । निदान वशतस्तेऽभूत प्रिया मदन-सुन्दरी ॥१३७॥ अन्वयार्थ - (ततः) इसके बाद (शतारेन्द्र :) वह शतारेन्द्र (श्च्युत्वा) यहाँ से चय होकर (सद्धर्मध्यान प्रभावतः) श्रष्ठ धर्मध्यान के प्रभाव से (इह) यहाँ (त्वम् ) तुम (महावली) अति बलवान (चरमाङ्गः) चरमशरीरी (पुण्यात्मा) पुण्यात्मा (जातः) हुए हो (राजन) हे राजन कोटोभट, (इति) इस प्रकार (महासिद्धचक्रवत प्रभावतः) महासिद्धचक्रवतबिधान के प्रभाव से (बहु) बहुत सी (दुर्गनिरहुतिको बोधायन) पापों को (क्षपित्वा) नाणकर (त्वम्) तुम (इदृश:) इस प्रकार शक्ति सौन्दर्य, यश के पात्र (अभूत्) हुए हो तथा (सा) वह इन्द्राणी (तत:) बहाँ से (च्युत्वा) चय होकर (पुनः) फिर (कांश्चित्) कुछ (भवान्) भवों में (भ्रान्त्वा) भ्रमण कर (ते) तुम्हारा (निदानवशत:) निदान करने से (त्वत्प्रिया) तुम्हारो प्रिया (मदन सुन्दरी) मदनसुन्दरी (प्रिया) बल्लभा (अभूत्) हुयो है । भावार्थ---मुनिराज श्रीपाल कोटीभट को सम्बोधन करते हुए कहने लगे, कि सुनो राजन् वह शनारेन्द्र अपने अनेकों अभूतपूर्व सुखों को भोगकर उत्तमसद्धर्म के प्रभाव से आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर यहाँ तुम उत्पन्न हुए हो। तुम चरमशरीरी हो, इसी भव से मुक्तिलाभ करोगे । महापवित्र पुण्यात्मा हो, महावली हो इस सवका कारण सिद्धचक्र व्रत पालन हो है । तुमने पूर्व भत्र में अनेकों दुर्गतियों में भटकने का भयङ्कर पापार्जन किया था, उस समस्त पाप को उसो भव में हे राजन् महायत सिद्धचक्रवात के प्रभाव से नष्ट कर दिया और यहाँ इस प्रकार के पुण्यात्मा, वलिष्ट, यशस्वी और जिनचरणाम्बुज भक्त हुए हो । तुम्हारे प्रेम में आशक्त वह श्रीमती रानी का जीव निदानबन्ध कर कई भवों के बाद यह तुम्हारी प्राणप्रिया मदनसुन्दरी वल्लभा हुयी है । यह सब सिद्धचक्र व्रत का माहात्म्य है ।।१३५ से १३७।। अतोऽत्रेदं व्रतं दक्षः कर्तव्यं सर्वशक्तितः । स्वर्ग मुक्ति करं सारं विश्वविघ्नौघ धातकम् ॥१३८॥ क्षिप्तं पापं त्वया पूर्व सिद्धचक प्रपूजनात् । तथाऽपि गन्धमात्रं च किञ्चित्पापं त्वयि स्थितम् ॥१३॥ श्रीकान्तास्यभवे पूर्व श्रावकव्रत संग्रहात् । त्वया प्राप्तं पितू राज्यं लघुत्वेऽपि प्रभो शृण ॥१४०॥ सतभङ्गादाज्यभनौ मुनेः कुष्ठीति जल्पनात् । कुष्ठी त्वमपि सजातस्सेवफैस्सह भूपते ।।१४१।। घरदत्त मुनीन्द्रेण कृपायुक्त न धीमता । प्रायश्चित्तं हि से दत्तं तेन जालोसि सुन्दरः ॥१४२॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy