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________________ [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ- (दयापरैः) दयालु श्रावकों द्वारा (सर्वदिक्षु) दसों दिशाओं में (जन्मपर्यन्तकम् ) जीवनपर्यन्त के लिए (यत्) जो (योजन:) योजनों द्वारा (संख्या) गिनती प्रमाण (क्रियते) किया जाता है (ह) नियम से (त) पहें (दितिम ) दिग्वत (कथ्यते) कहा जाता है। भावार्थ---जीवनभर के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की दुरी का प्रमाण करना दिग्नत है । "मैं अमुक-अमुक दिशा में १००-१०० योजन या अधिक कम जाऊँगा" की हुयी सीमा के बाहर कभी भी नहीं जाना दिखत है। अन्य भी पर्वत, नदी, ग्राम, देशतक का भी प्रमाण किया जा सकता है । यथा उत्तर में हिमालय, पूर्व में वर्मा, दक्षिण में लङ्का, पश्चिम में अरबसागर तक हो जाऊँगा. इसी प्रकार विदिशाओं और ऊपर-नीचे जाने माने का प्रमाण कर लेना दिग्बत है अर्थात दिशाओं में व्रत धारण करना ।।४।। देशव्रत का स्वरूप-- तन्मध्ये नित्यशः स्तोकसंख्या सक्रियते बुधैः । देशवतं तदाख्यातं भो सुते ! पूर्वसूरिभिः ॥४६॥ अन्वयार्थ--(तन्मध्ये) जन्मभर के लिए की, मर्यादा में (नित्यश:) प्रतिदिन (बुधः) विद्वानों द्वारा (स्तोकसंख्या) कम-कम संख्या (संक्रियते) की जाती है (तद्) वह (भो सुते ! ) हे पुत्रि ! (पूर्वसूरिभिः) पूर्वाचार्यों द्वारा (देशवतम् ) देशवत (आख्यातम् ) कहा गया है। मावार्थ--जन्मपर्यन्त के लिए की गई दशों दिशा की मर्यादा में से प्रतिदिन इच्छानुसार गली, घर, मुहल्ला, गांव, शहर, क्षेत्र आदि की मर्यादा लेकर क्षेत्र को कम करना देशव्रत है । आचार्य कहते हैं हे पुत्रि ! मदनसुन्दरी ! पूर्वाचार्यों ने जैसा देशव्रत का स्वरूप कहा है वही मैंने तुम्हें बतलाया है ।।४।। अनर्थदण्डवत का लक्षण; त्यज्यते विफलारम्भो, यत्सदाधर्मवेदभिः । पृथिवी जलावियातोरवनस्पति विराधकः ।।५।। कुक्कुरमार्जारकीरमर्कटकादयः ।। दुष्ट जीवानपोषन्ते तं तृतीयं गुणवतम् ॥५१॥ ; अन्वयार्थ (यत्) जो (धर्मवेदभिः) धर्म के ज्ञाता जन (सदा) सतत (पृथिवीजलवात) भूमि, जल, वायु (उरु) बहुत सी (वनस्पति) वनस्पतिकाय पेड़ पौधे (आदि) अग्निकाय जीवों की (विफलारम्भः) व्यर्थ ही, निष्प्रयोजन आरम्भ कर (बिराधकः) छेदन, भेदनादि का (त्यज्यते) त्याग करते हैं (तथा) (एवं) इसी प्रकार (कुक्कुर) कुत्ता (मार्जारः) विल्ली (कोर:) तोता (मर्कटादयः) बन्दर आदि (दुष्टजीवान्) मांसाहारी जीवों को (न) नहीं (पोषन्ते) पोषते हैं (तं) व (तृतीय) तीसरा अनर्थदण्डयत (गुणवतम् ) गुणवत (भवति) होता है ।।५०-५१
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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