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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
[ २२७ अक्षत, कुकुम, सर्षप, जल, दूर्वा, दीप, दही, धनिया, लावा-खील, पुष्प आदि लेकर प्रथम उसके दैदीय भाल पर तिल कार्चन किया, तिलक लगाकर अक्षत आदि शिर पर क्षेपण किये, दधि आदि मुग्स में खिलाया और शुभ हितकारी वचन कह "शीघ्र ही तुम्हारा दर्शन हो ।' इस प्रकार आशीर्वाद दिया ।।४५-४६।।
एवं विसर्जितो मात्रा सोऽपि नत्वा पुनश्चताम् ।
नमः सिद्धेभ्यः इत्युच्च णित्या निर्ययौगृहात् ॥४७॥ प्रन्वयार्थ - (एवम.) इस प्रकार (स) वह श्रीपाल (अपि) भी (मात्रा) माता द्वारा (विसजितः) विदा होकर (च) और (पुनः) फिर से (ताम ) माता को (नरवा) नमस्कार करके (नमःसिद्धेभ्यः) "सिद्धों को नमस्कार हो" (इति) इस प्रकार (उच्च:) भक्ति से (भणित्वा) उच्चारण कर (गृहात्) घर से (निर्ययो) निकल गया ।
भावार्थ-माता का उपदेश सुनकर, उपयुक्त प्रकार अनुमति प्राप्त कर पुन: नमस्कार किया । पूज्य मातेश्वरी से विदा होने पर "नमः सिद्धेभ्यः" इस प्रकार उच्चारण कर घर में निकल गया। प्रयाण बेला में इष्टदेव को नमस्कार करने से कार्य में निर्विघ्न सिद्धि होती है। संकट आते नहीं है। आपत्तियां दर हो जाती है। सर्व कार्य सानन्द सिद्ध होते हैं । अतः नीति कुशन श्रीपाल अपने इष्ट सिद्ध परमेष्ठो का नाम उच्चारण कर उन्हें नमस्कार कर व्यापारार्थ घर से निकला ।।४।।
स श्रीपालस्तदा मार्गे संत्रजन् पुण्य सम्बलः ।
नाना पुराकर ग्रामानाना दुर्गादिकान् क्रमात् ।।४।। अन्वयार्थ-पुण्य) शुभकर्म है (सम्बल:) अाधार जिसका (स) वह (श्रीपालः) श्रीपाल (मार्गे) राह में (संत्रजन् ) प्रयाण करता हुआ (नाना) अनेक (पुराः) नगर (आकर) सागर (ग्रामात् ) गांवों से (नाना) अनेकों (दुर्गादिकान्) किले आदि को (क्रमान्) कमसे
स्मरन् पञ्चनमस्कारान् संसाराम्भोधि पारवान् । भगुकच्छ पुरं प्राप दिनैः कश्चित्पराक्रमी ॥४६॥
अन्वयार्थ (संसाराम्भोधिः) संसार सागर (पारदान) पार करने वाले (पञ्चनमस्कारान्) पञ्चपरमेष्टी वाचक णमोकार मन्त्र को (स्मरन्) स्मरण करता हुना (कश्चित् ) कुछ (दिन:) दिनों में (पराक्रमी) वह वीर श्रीपाल (भृगुकच्छपुरम् ) भगुकच्छनामक नगर में (प्रायः) पहुँचा ।।४।।
भावार्थ-प्रियपत्नी और मातेश्वरी से विदा होकर शुभदिन, लग्न और मुहूर्त में श्रीपाद राजा "नमःसिद्धेभ्यः" उच्चारण कर चल पड़ा। वह वीर अकेला ही आत्मविश्वास से