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[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिक्छेद
चला । मात्र उसका आधार उसो का पुण्य था। निजपुण्य का पाथेय लेकर निर्भर सुभट एकाको भ्रमण करने लगा। परन्तु निरन्तर पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान, चिन्तन करता रहता था। गमोकार महामन्त्र को कभी नहीं छोड़ा। छोड़ता भी कैसे-वयों? क्योंकि भव्यजीवों को संसार उदाधिस पार करने वाला यहीं तो एकमात्र महामन्त्र है। महाराज काटीभट श्रोपाल ने इसी महामन्त्र का सहारा लेकर मार्ग में जाते हए अनेकों नगरों, पर्वतों, ग्रामो, वनों, किलो, स्वाइयों अटवियों आदि को निर्भय पार कर लिया । कुछ ही दिनों में वह शूर शिरोमणि, वीराग्रणी भृगुकच्छ नामके पुर में जा पहुँचा ।।४६ ।।
तत्रास्ति धवलः श्रेष्ठी भूरिवित्त समन्वितः ।
सानिमलतारमोच्न पालागि सन्ति च ।।५०॥
अन्वयार्य--(तत्र) उस भृगुकच्छपुर में (भूरि) बहुत (वित्त) धन (समन्वितः) से युक्त (धवलः) धवल नाम का (श्रेष्ठी) सेठ (अस्ति) है (तस्य) उस के ही (च) और (उच्चैः) विशाल (पञ्च) पाँच (शतानि ) सौ (यानपात्राणि) जहाज (सन्ति ) हैं।
भावार्थ-उस भगुकच्छ नगर में पहुंचा । वहाँ श्रीपाल ने घबल नाम के श्रेष्ठी को पाया । वह अत्यन्त धनाढ्य था । उत्तम व्यापारी था । उसके पास में र नद्वीप को जाने वाले ५०० विशाल जहाज थे। उनके द्वारा वह व्यापारार्थ जाता था ।।५।।
तदा तस्य च ते पोताश्चलितास्सुभटैरपि ।
सागरेन सरन्तिस्म विपुण्या वा मनोरथाः॥५१॥ अन्वयार्थ—(तदा) उसी दिन (तस्य) उस धवल के (ते) वे (पोताः) जहाज (च) और (सुभटैः) सुभट (अपि) भी (सागरेन) जलधिमार्ग से (सरन्ति) चलरहे (स्म) थे (वा) मानों (विपुण्या) पुण्यहीन के (मनोरथाः) मना रथों के समूह हों।
भावार्थ-जिस दिन श्रीपाल कोटिभट वहाँ पहुँचा, उसी दिन उस धवल सेठ के ५०० जहाज उदधि मार्ग से व्यापारार्थ चले । परन्तु उनके मनसूबे पापियों के मनोरथों के समान निष्फल थे । पुण्यहीनों की भला कार्य सिद्धि कहाँ ? प्रस्थान करते ही समस्त जहाज वहीं अटक गये । अनेकों प्रयत्न करने पर भी टस से मस नहीं हुए। इस आश्चर्यकारी घटना को देख धवल सेठ के होश-हवाश उड़ गये क्या करे ? क्या नहीं करे ।।५।।
स श्रेष्ठी धवलाक्षस्तु व्याकुलो विस्मयात्वितः ।
नमित्तिकं प्रति प्राह किमेतदिति भो सुधीः ॥५२।। अन्वयार्थ--(स) वह (श्रेष्ठी) सेठ (धबलाक्षः) धवलनामक (विस्मयान्वतः) आश्चर्यचकित हो (व्याकुलो) आतुर (अस्तु) हो गया (नैमित्तिकम् ) निमित्त ज्ञानी से