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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [२७६ भावार्थ- दुर्जन मकडो के समान पर के विनाश के अभिप्राय से अपने ही नाश का जाल स्वयं पूरता रहता है । यही हाल था उस पापी मायावी वणिक् का । उसने मायाचारी का अधम कार्य कर ही डाला । दुर्जनों का हृदय गहन तमसाच्छन अटयों के समान अज्ञात रहता है उसकी चालें अगम्य होती हैं । उसी के समान मायावी उन्हें समझ सकता है। बेचारा भोला, सरल परिणामी, जिनधर्म परायण, सिद्धभगवन्त के ध्यान का अनुरागी श्रार्जव धर्मपालक श्रीपाल भला कहाँ समझ पाता ? निष्कपट, उपकारभावी वह इस कोलाहल को सुनते हो "नमः सिद्धेम्य: " उच्चारण करता हुआ उठ खड़ा हुआ । वेग से इसका कारण ज्ञात किया, उस महाप के प्रकीविका लगाने के लिए वेग से सहसा रस्सी पर चढ़कर जहाज के मस्तूल के स्तम्भ पर चढने लगा । उसी समय उस पापाचारी ने बीच ही में रस्सी को काट दिया । बेचारा निरपराध, जिनभक्त दयालु, परोपकारी श्रीपाल एक ही निमिष में सागर की उत्ताल तरङ्गों के साथ आ मिला। अब उसका महामन्त्र स्मरण के साथ सिन्धु के ज्वारभाटों से संग्राम होने लगा । आचार्य कहते हैं अपराधी को अपराध का यथायोग्य दण्ड देना तो किसी प्रकार क्षम्य हो सकता है, महापाप नहीं कहा जाता। किन्तु निरपराध धर्मात्माओं के साथ इस प्रकार अत्याचार करना क्या क्षम्य है ? इससे बढ़कर क्या कोई अन्य पाप हो सकता है ? नहीं हो सकता । यह तो वही हुआ "जिस हांडी में खाया, उसी में छेद कर दिया ।" उस महा मनीषी के सहयोग से करोड़ों का व्यापार कर मालोमाल हुआ, पाँचसो जहाज अटूट धन से भरे और उसी के प्रारण नाश का असफल प्रयत्न किया ||२७, २८|| धर्मात्मा धर्म की नौका पर सवार रहते हैं भला सागर को उत्ताल तरङ्ग अपने क्षणिक स्वभाव से उसका क्या बिगाड़ कर सकती हैं ? कुछ नहीं । श्रीपालोऽपि सुधीस्तत्र सागरे सम्पतन्नपि । स्मरन् पञ्चनमस्कारान् सिद्धचक्रं पुनः पुनः ||२६|| निमज्य जलधौ शीघ्र प्रवाहात् समुच्चलन् । जलोपरि स्वपुण्येन सम्प्राप्तः पद्मवत्तराम् ॥३०॥ श्रवोक्ष्य पोतकं तत्र वञ्चितोऽपि दुराशयैः । भुजाभ्यां सन्तरन्तुच्चैस्समुद्रमपि दुस्तरम् ॥३१॥ धन्वयार्थ - ( सुधीः) ज्ञानी ( श्रीपाल : ) श्रीपाल (तत्र) उस ( सागरे ) समुद्र में (अपि) भी ( सम्पतन् ) गिरता हुआ (अपि) भी (पुनः पुनः ) बार-बार (पञ्चनमस्कारान् ) पञ्चनमस्कार मन्त्र (सिद्धचक्रम् ) सिद्धचक्र को (अपि) भी ( स्मरन् ) स्मरन करता हुआ ( जलधी ) सागर में ( निमज्य ) डूबकर ( शीघ्रम ) शीघ्र ही ( प्रवाहात्) जल प्रवाह से ( समुच्चलन् ) बहता हुआ जाता ( स्वपुण्येन) अपने पुण्य से ( जलोपरि ) जल के ऊपर (पद्मवतराम् ) कमल जैसा तैरता फलक (सम्प्राप्तः) प्राप्त किया ( तत्र ) वहाँ (पोतकम् ) जहाज को (अवीक्ष्य) नहीं देखकर ( दुराशयः ) दुरभिप्राय से ( वञ्चितः) ठगा गया (अपि) भी
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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