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________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५४३ उसने अपना ममस्त राज्य वैभव, सम्पदा का भार अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्र महीपाल को प्रदान कर दिया। स्वयंप होस यो नुनम यानी के सानिध्य में संयम लेकर तपश्चरण करने को जा पहुंचा। वस्तुतः वैराग्य ही अभय है। महामण्डलेश्वर राज्य वैभव को तृगवत् छोड़कर दुर्द्धर तप की शरण में प्रा गया ।।१३।। प्रणम्य तं गुरु भक्त्याऽशिव ध्वस्तं जगद्धितम् । त्यक्त्वा वाह्याभ्यन्तरान् सङ्गान त्रिशुद्धचा शिवसिद्धये ॥१४॥ जग्राह परमां दीक्षां बहुभिर्भूमिपैस्समम् । संवेग धारिभिर्दक्षस्स श्रीपालनरेश्वरः ॥५॥ अन्वयार्थ (शिवश्वस्तम्) संसार के नाशक (जगद्धितम्) जग का हित करने वाले (तम) उस-उन (गुरुम्) गुरु श्री १०८ सुव्रताचार्य को (भक्त्या) भक्तभाव से (प्रणम्य) नमस्कार करके (त्रशुद्धया) मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक (वाह्याभ्यन्तरान्) बाह्य और प्राभ्यन्तर (सङ्गान्) परिग्रहों को (त्यक्त्वा) छोड़कर (संवेगधारिनिर्दक्षः) वैराग्य धारण करने में चतुर-संसारभीत (बहुभिः) बहुत से (भूमिपैः) राजाओं के (समम् ) साथ (शिवसिद्धय ) मुक्ति की सिद्धि के लिए. (श्रीपालनरेपबरः) श्रीपाल भूपेन्द्र ने (परमाम् ) परमाज्ज्वल उत्तम (दीक्षाम् ) वीतराग, भगबती दोक्षा (जग्राह) धारण की। भावार्य -महामण्डलेपवर पृथिवीपति राजा श्रीपाल राज्यकार्य का भार पुत्र को समर्पण कर निगकुल हो गये। वे उद्यान में विराजे श्री १०८ सुव्रताचार्य श्री के पदपङ्कजों में भ्रमरवत् जा पहुंचे । वे आचार्य परमेष्ठी ममस्त सांसारिक अकल्याणों को विध्वंस करने में तसर थे, समस्त संसार का हित चाहने वाले समदर्शी थे। महान वीतर गी परमगृह का सान्निध्य प्राप्त कर संवेग और वैराग्य से ओत-प्रोत श्रीपाल महाराज हर्ष से विभोर हो गये । परमभक्ति से सविनय नमस्कार कर उनकी चरणरज मस्तक चढायो । तदनन्तर १० प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग किया। वे परिग्रह है--धन, धान्य, दासी-दास, क्षेत्र-वास्तु, हिरण्यसुवर्ण, कुण्य-भाण्ड ! इनके साथ ही अन्तरङ्ग परिग्रह. मिथ्यात्व, (राग-द्वेष) कषाय, हास्य, रति, मरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीडेद, पुरुषवेद पोर नपुंसक वेद । तीनों वेद एक साथ ग्रहण करने पर राग-द्वेष दो भेद नहण करना चाहिए अन्यथा उन्हें मिथ्यात्व में ही समाहित समझना इस प्रकार १०. बाह्म और १४ अन्तरङ्ग कुल २४ प्रकार के अशेष परिग्रह का नत्र कोटि-मन, वचन, काय • कृत. कारित, अनुमोदना से त्याग कर दिया । संसार से भयभीतसंवेग युक्त, वैराग्यभाव परिगत अनेकों भुपों के साथ प्रात्मसिद्धि के लिए अर्थात् शिव की प्राप्ति के अर्थ परम विशुद्ध परमेश्वरी दीक्षा धारण की। पुर्ण संयमी वन दिगम्बर भेषधारी हो गये.॥४-६५/ राश्यो मदनसुन्दर्याद्याभव्योः भूभुजा समम् । एक शाटों बिना संगांस्त्यक्त्वाददुस्तपोद्भुतम् ।।१६।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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