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________________ श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] [५२५ च्छेदना. गरम-गरम जलली पुतलियों से चिपटाया जाना आदि कवियों की वाणी से भी अगोचर दुखों को सहता है। संसार में कहावत है "जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुँचे कवि" अर्थात् जिस विषय-पदार्थ को रवि रश्मियाँ भी प्रकाशित नहीं कर सकती उनका भी निरूपण कविजन अपनी सूक्ष्म प्रतिभा से कर देते हैं" वे कविराज भी नरकों की असीम यातनाओं का वर्णन करने में समर्थ नहीं होते । ऐसे दुःसह कष्टों को यह जीव सहन करता है नरकों में । इसी प्रकार तिर्यञ्च गति के दुख हैं जो प्रत्यक्ष देखने में आते हैं बध-बन्धन के कष्ट तो है ही नाक-कान छेदन, नाल ठोकना, वधिया करना आदि मर्मभेदी यातनाएं सहनी पड़ती हैं। शीत-उष्ण की कितनी भयङ्कुर बेदना सहते हैं। ग्रीष्मकाल में चिलचिलाती धूप में बंधे हैं, काम कर रहे हैं, हल चलाना गाड़ी खींचनामादि कार्य में बलात् जोते जाते हैं। समय पर न पानी का ठिकाना है म चारा का । इसी प्रकार शीतकाल में खले मैदान में रहना आदि काट उठाते हैं । भाषा न होने से अपनो पीडा, दुःख भूख-प्यास आदि को अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते । मूक होने से भयंकर मानसिक पीड़ा होती है और विचारे पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, लट-पिपील, सिंह-व्याघ्रादि सभी निरन्तर दुःखानुभव करते रहते हैं। पाप बाहुल्य होने से हर समय ये पीड़ित रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्य गति में भी दारुण कष्ट होते हैं । इष्ट अनुकूल सामग्नी नहीं मिलने पर अथवा प्राप्त वस्तु का वियोग हो जाने पर मनुष्य को तज्जन्य कष्ट सहन करना पड़ता है इसी प्रकार अनिष्ट वस्तु, जिसे मानव नहीं चाहता और बलात् वह प्राकर चिपट जाये, प्राप्त हो जाये तो भी मन आकुल-व्याकुल होकर क्षण भर भी विपनान्ति नहीं पा सकता ? अर्थात् मानव जीवन के गुथे हुए (इष्ट पदार्थ) अभिलसित पदार्थों के चले जाने पर अनिष्ट संयोजक पात-पीड़ा होती है । इस सबको जीव भोगता है और यथायोग्य फल भी भोगना ही पड़ता है । इसके अतिरिक्त रोग, शोक, आधि व्याधि, दैन्य तापादि जीव को भोगने ही पडते हैं । विशेष रूप से ये मानव पर्याय के कष्ट हैं। कभी पूण्य बिशेष किया तो स्वर्गधाम पा जाता है । वहाँ क्या है ? यहाँ सञ्चित किया पुण्य और पाप । पुण्य विशेष कल्पवासी भी देव हो गया तो भी इन्द्रादि को विभूति देख कर हाय-हाय कर-कर रोता है। मरणकाल में प्रात परिणाम कर स्वयं ही स्वयं के पापों के सञ्चय का उपाय कर बैठता है । इस अवसर पर कौन रक्षा करे ? और किसे दुःख का साथी बनायें । मन्दारमाला मुर्भाने पर मरणकाल निकट जान हाय-हाय करता है । ये सुख छटने वाले हैं अब क्या करूं? इस प्रकार पश्चात्ताप कार रोता है ? और पुन: यहाँ आ टपकता है। अधिक क्या ? देवपर्याय से एकेन्द्री तक हो जाता है । इस प्रकार चारों ही गतियाँ विविध प्रकार के दुःखों से संकीर्ण हैं। यह संसार दुःख ही है। इस प्रकार विचार कर मुमुक्षुप्राणी को पञ्चमगति-मोक्ष पाने का सतत उपाय करना चाहिए। इस प्रकार संसार भावना का चिन्तवन करने में श्रीपाल पृथ्वीपति तल्लीन हो गये ।।५० से ५४।। पूनः एकत्व भावना का विचार करते हैं। उसका स्वरूप निम्न प्रकार समझना चाहिए - एको जीवोऽत्र पापेन दुःखमग्नाति नित्यशः । एक स्वर्गादिकं सौख्यं स्वपुण्य परिपाकतः ॥५५॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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