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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
[ २५५ से मेरे दोनों चरण-पांव आज सार्थक हुए । अर्थात् पैरों के पाने का फल आज मुझे प्राप्त प्रमा। मेरे पर धन्य हो गये । मस्तक का पाना भी आज ही सफल ना क्योंकि आपके च णाविन्दों का स्पर्श करना ही मस्तक की सफलता है। जो मस्तक श्रीजिनचरणों में नहीं झुकता बह शिर नहीं अपितु थोथा नारियल समान व्यर्थ है । मैं आज ही मस्तक का धारी हुआ हूँ॥१३॥
कृतार्थसद्धचोमेऽद्य प्रभो त्वद्गुणभाषणात् ।
चपुस्ते सेण्या पूर्त मनान गुणजितनात् ।।१३२।।
प्रन्ययार्थ (प्रभो) भो प्रभुवर ! (अद्य) आज (त्वदगुणभाषणात्) आप के गुणों का वखान करने से (मे) मेरे (सद्वचः) श्रेष्ठ बचन (कृतार्थम् ) कृतार्थ हुए, (ते) आपको (सेक्या) मेवा से (वपुः) शरीर (पूर्व) पवित्र हुअा (च) और (गुणचिन्तनात्) गुणों का चिन्तवन करने से (मनः) मन (पूतम् ) पवित्र हुया ।।१३२।।
भावार्थ-हे दीनदयाल, जगदीश्वर ! आज आपके गुणों का चिन्तवन करने से मन और गुण कीर्तन करने से मेरी रसना, मेरे वचन सार्थक हो गये।
भवत्पूजनतो नाथ ! त्रिजगत्पूज्यतापदम् ।
प्राप्यते च पराकीतिस्त्वद्गुणस्तवनाम्दुधौ ॥१३३॥ अन्वयार्थ – (नाथ ! ) हे प्रभो ! (भवत्पूजनतः) आपकी पूजा करने से (बुधाः) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जन (त्रिजगत्) तीनलोक से (पूज्यतापदम्) पूजितपद को (च) और (स्वदगुणस्तवनात) पाएके गुणों का स्तवन करने वाले (पराकीति) सर्वव्यापी यश को (प्राप्यते) प्राप्त करते हैं ।
भावार्ग है जिनदेव जो भव्यात्मा भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है वह स्वयं आप महश ही पूज्य हो जाता है। तीनों लोकों से पूजनीय बन जाता है। तथा जो आपके गुणों का गान करता है यश गाता है उसका यश भी त्रिलोकव्यापी हो जाता है । अभिप्राय यह है कि आप अपने भक्तों को अपने समान ही बना लेते हैं । इस प्रकार की शक्ति आप ही में है । पारशमणि लोहे को सुबरण बना सकती है, पारसमणि नहीं । चिन्तामणिरल चिन्तित पदार्थ दे सकती है, चिन्तामणि नहीं बना सकती है । आप ही एकमात्र अपने पाराधक को भाराध्य बनाने वाले हैं । अचिन्त्य है प्रभाब आपका भगवन ।।१३३।।
नाथ तेंघ्रिनमस्कारादुच्चोत्रंसुराच्चितम् । भक्त दिव्यंवपुःकान्तं लभ्यते भाक्तिकरिह ।।१३।।