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________________ २५४] [ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद आपका चरणसान्निध्य प्राप्त होता है। पुण्य विहीन को आपका दर्शन दुर्लभ, अति कठिन है, श्रापका दर्शन कर मैं प्राज धन्य हुआ हूँ। मेरे किसी विशेष पुण्य से आपके चरणकमल का दर्शन हुआ है ।। १२८ ॥ प्रद्यनाथात्र धन्योऽहं सफलं जन्मजीवितम् । विघ्न जालानि नष्टानि मेऽद्यत्वद्भजनाद्भ वि ॥ १२६ ॥ अद्य मे सफले नेत्रे देव त्वमूर्ति वीक्षणात् । कृतार्थी सत्करौ जातौ त्वद्विम्बस्तवनाच्चनात् ॥ १३०॥ अन्वयार्थ - (नाथ) हे नाथ ! ( अत्र ) यहाँ ( अद्य ) आज ( अहम् ) मैं ( धन्यः ) धन्य हूँ, (जन्म जीवितुम् ) मेरा जन्म और जीवन (सफलम् ) सफल हुआ ( भुवि ) पृथ्वीमण्डल पर ( त्वद् ) आपके ( भजनात् ) स्तुतिपाठ करने से ( अ ) आज ( मे) मेरे ( विघ्नजालानि ) कष्टजाल सब ( नष्टानि ) नष्ट हो गये ( अद्य ) श्राज (मे) मेरे (नेत्र) दोनों नयन ( सफले ) सफल हुए (देव) हे देव ( त्वत्) आपका (मूर्ति) विम्ब ( वीक्षनात् ) देखने से तथा ( त्वद्) आपकी ( विम्ब) प्रतिमा की ( श्रचंनात् ) पूजा करने से (च) और ( स्तवनात् ) स्तवन करने से ( सत्करों) मेरे दोनों हाथ ( कृतार्थी ) कृतकृत्य (जाती) हो गये । भावार्थ --- हे परम देवाधिदेव भगवन् आज यहाँ श्राकर में धन्य हुआ, मेरा जन्मसफल हुआ, तथा जीवन सार्थक हुआ। संसार में उसी का जन्म सार्थक है जो सर्वदोष रहित जिनेश्वर की उपासना कर अपनी आत्मा को भी कर्मकालिमा रहित बनाने का प्रयत्न करे । उसी का जीवन सफल हो जो जिनगुणगान में लगा हो । अतः हे प्रभो ! आपके दर्शन और स्तवन से मेरे समस्त विघ्नजाल कट गये। आज ही मुझे नेत्रों के पाने का यथार्थ फल मिला है । मेरे दोनों नयन आपके दर्शन करके सार्थक हो गये । आपका प्रनुपम विम्ब देखकर अवलोकन कर मैं सफल हुआ। आपकी पूजा और स्तवन से मेरे दोनों हाथ आज पावन हो गये, सार्थक हो गये । यथार्थ फल प्राप्त कर सफल हो गये। जिन चरणाम्बुज पूजा ही मानवता का श्रृंगार है ।। १२६-१३० ॥ श्रद्य धन्य हि मत्यादौ स्वामिस्त्वन्मूर्ति यात्रया । सफलं स्वशिरोमेऽद्य प्रणमत्त्वत्पदाब्जयोः ।। १३१ ॥ अन्वयार्थ - ( अद्य ) श्राज ( स्वामिन् ) हे भगवन (वत्) आपकी (मूर्ति) बिम्ब ( यात्रया) यात्रा करने से (हि) निश्चय से ( मत्यादी ) मेरे पौत्र ( धन्यो ) धन्य हो गये । (अ) आज ( त्वत्पादाब्जयोः ) तुम्हारे चरणकमलों में ( प्रणमत् ) प्रणाम - नमस्कार करते हुए (मे) मेरा ( स्वशिरो) अपना मस्तक ( सफलम् ) सफल हुआ। नाबार्य हे जिनेश्वर ! आपके बिम्ब की यात्रा करने से अर्थात् रथोत्सव में चलने
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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