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"प्रस्तुत चरित्र का कथा परिचय"
द्रव्य या तत्त्व सनातन है । इनका स्वभाव, गुणधर्म सतत एकसा रहता है । कुछ तो अविवृत ही रहते हैं यथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल । कुछ संयोगादि सम्बन्ध कर विकारी हो जाते हैं । मानब मस्तिष्क ही इनको जटिल गुत्थियों को सुलझाने में समर्थ होता है । ये मैत्री करने वाले द्रव्य हैं जीव और पुद्गल । इनका संयोगी व्यापार हैं संसार । संयोग का समाप्त हो जाना मिट जाना अर्थात् दोनों का सर्वथा पृथक्करण हो जाना हो है मुक्ति या मोक्ष । इस मोक्ष होने की कला सिखाने वाला है प्रथमानुयोग अर्थात् महापुरुषों का चरित्र । यद्यपि द्रव्यानुयोग 'द्रव्य' विश्लेषण का ठेकेदार है। किन्तु वह फिल्टर किये-शुद्ध किये गये द्रव्य को ही अपना विषय बनाता हैं । यहाँ इस विषय की चर्चा नहीं करना, अपितु उस कलाकार का परिज्ञान करना है जिससे प्रात्मा-अशुद्ध पर्यायों से निकल शुद्धावस्था में प्रा चमके । प्रस्तुत चरित्र इस कला का सफल निर्देशक है, स्वयं ही यह कला है । इसके नायक हैं श्री श्रीपालकोटीभट महाराज । इसमें तत्वार्थ सूत्र की भाँति दस (१०) परिच्छेद हैं । जिनमें क्रमश: जीवन विकास का मार्ग निदिष्ट है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थों का मणिकाञ्चन समन्वय है और अन्त में मुक्ति का प्रखण्ड अधिनादर है सप्र३ । पारको कि नवरसों का प्रदर्शन किस प्रकार शान्तरस में अबसान पाता है । श्रावक असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवा इन छह कर्मों से उपार्जित पापराशि को किस प्रकार-देवपुजा, गृरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान द्वारा क्षणमात्र में भस्म कर डालता है। पढ़िये मोर स्वयं देखिये, जानिये और अनुभव करिये । स्वयं भोजन किये बिना भूख नहीं मिटती। यहाँ संक्षिप्त कथा परिचय दिया जाता है।
यह कथा दस परिच्छेदों में निबद्ध है। प्रथम परिच्छेद में १६१ श्लोक हैं । जिनके द्वारा जम्बूद्वीपस्थ मगधदेश एवं राजगृह नगरी की शोभा का सुन्दर विवरण करते हुए यह दिखाया है कि वहाँ के सभी नरनारी धर्मात्मा शीलवन्त सदाचारी थे, षट् कर्मों को सतत् रुचिपूर्वक करते थे, जिनपूजा प्रतिष्ठा आदि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना में सदा तत्पर रहते थे। स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर उस राजगृह नगरी में विपुलाचल पर्वत पर थी १००८ महावीर प्रभु का समवशरण आया और प्रभु को दिव्य ध्वनि से जीवतत्त्व को मुख्यकर समस्त तत्त्वों का एवं गुशास्थान मार्गणास्थान प्रादि का भी संक्षिप्त बान किया गया । पुनः श्रेणिक महाराज ने अनेक प्रश्न किये, जिनमें सिद्धचक्र विधान का लक्षण एवं विधि विधान भी पूछा और उसके उत्तर स्वरूप इस कथा का प्रारम्भ हुआ।
दूसरे परिच्छेद में १३७ श्लोक हैं, श्रीपाल चरित्र का प्रारम्भ इसी परिच्छेद से होता है । इस परिच्छेद में अवन्ति देश एवं उज्जयिनी नगरी की विशिष्ट महिमा और राजा प्रजापाल, रानी सौभाग्यसुन्दरी की प्रथम पुश्री सुरसुन्दरी और द्वितीय पुत्रो मदनसुन्दरी (मैंना
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