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________________ सुन्दरी) का निर्देश है। सुरसुन्दरो ने किसी ब्राह्मण के पास विद्याध्ययन किया था अतः वह यज्ञ, याग, वेद, कोकशास्त्र - गोपुच्छ पूजादि विषयक मिथ्याशास्त्रों में, सोमपान, बलि, मांसभक्षरण, मन्त्र तन्त्रादि का विधान करने वाले ग्रन्थों में, मिध्याप्रपंचों में भी श्रद्धान करने लगी । मदनसुन्दरी ने यमधर मुनिराज के पास धर्म श्रवण किया था, विद्याध्ययन किया था। जिनेन्द्रोक्त - काव्य, छन्द, व्याकरण, धर्मसिद्धान्त आदि का गहन अध्ययन किया था तथा अष्टमूल गुणधारण कर श्रेष्ठ रीति से श्रावकधर्म का पालन करती थी। दोनों पुत्री विवाह योग्य हो गई थीं। पिता के पूछने पर बड़ी पुत्री सुरसुन्दरी ने कहा कि अहिक्षेत्र के अधिपति के पुत्र अरिदमन के साथ मेरा विवाह करो। किन्तु मदनसुन्दरी ने कहा कि हमारे कर्मानुसार जैसा पति मुझे मिलेगा, वह मान्य है आप जिसे उचित समझें, वही मुझे स्वीकार है ऐसा कहकर जिनेन्द्र प्रभु का पञ्चामृत अभिषेक कर गन्धोदक लेकर आई हुई मदनसुन्दरी चली गई। स्वकर्मानुसार जीव को सुखसम्पदा प्राप्त होती है यह बात सुनकर पिता क्रुद्ध हो उठे क्योंकि पिता ने मेरा पालन पोषण कर मुझे सुयोग्य बनाया है ऐसो बात मैनासुन्दरी ने नहीं कही। राजा प्रजापाल वनविहार को गया और सात सौ कुष्ठियों के साथ गलित कुष्ठ से पीडित श्रीपाल को देखा और क्रोधावेश में उसी कुष्ठी के साथ अपनी पुत्री मदनसुन्दरी का विवाह कर दिया। उस परिस्थिति में विलक्षण वर्य को धारण करने वाली अपनी माता, बहन को धैर्य बँधाती है और कर्मानुसार ही सब कुछ होता है ऐसा कहकर संतोष धारण करती है। वह सदा पति की सेवा में तत्पर रहती है । विवाह के बाद नगरवासियों में लोकनिन्दा का पात्र हुआ राजा प्रजापाल भी पश्चात्ताप करने लगा तथा नगर के निकट ही सात मंजिल के महल की व्यवस्था करदो । वहीं पर वे दम्पति एवं सात सौ कुष्ठी भी रहने लगे। पिता ने पुत्री को भरपूर धन सम्पदा भी दहेज में दी किन्तु अपनी भूल से अथवा अहंबुद्धि के कारण लोकनिन्दा का पात्र बन गया । इस प्रकार मदन सुन्दरी के विवाह का समुल्लेख करते हुए दूसरा परिच्छेद समाप्त हो गया । (तृतीय) परिच्छेद में यह बताया है कि मदनसुन्दरी एक आदर्श धमपाना के रूप में पति की उत्तम प्रकार सेवा करती है और पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति के बल से तथा श्री सिद्धचक पूजा विधान के बल से पतिदेव एवं समस्त कुष्ठी वर्ग को निरोग कर देती है । वह मैनासुन्दरी पतिदेव को लेकर जिनालय में गई और जिनाभिषेक पूजा के अनन्तर यहाँ विराजमान सुगुप्ताचार्य मुनिराज को अपने अशुभकर्मोदय को बताकर दुःख से मुक्ति का उपाय पूछने लगी। तब मुनिराज ने कहा कि तुम सम्यक्त्व पूर्वक, श्री सिद्धचक्रव्रत का पालन करो, तुम्हारा संकट दूर होगा और पति निरोग होकर राज्य करेगा। पुनः मुनिराज ने श्रावक व्रत का उल्लेख किया । अष्टमूलगुण, पाँच अणव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत, जलगालन विधि रात्रि मुक्ति त्याग व्रत, दान विधि, दान का फल, देव का स्वरूप, पूज्य पूजक, पूजा एवं पूजा का फल, बदक पालन और अन्त में सल्लेखना प्रादि का एवं श्री सिद्धचक्र व्रत की महिमा, विधि, स्तुति, जाप, यन्त्र निर्माण विधि का भी उल्लेख किया तथा कथित व्रत धारण कर और यथाविधि व्रत का पालन कर प्रभावना के साथ श्री सिद्धचक पूजा विधान कर जिनभक्ति परायणा मैना सुन्दरी ने उत्तम अभीष्ट फल को प्राप्त कर लिया अर्थात् आठवें दिन सब रोग रहिन हो गये । इन्द्र वा कामदेव के समान पति को देखकर मेनासुन्दरी बहुत प्रसन्न हुई । पुत्र के रोग रहित हो जाने का समाचार पाकर श्रीपाल महाराज की माता XIV
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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