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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
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( वक्तिः ) बोलने वाला है ( लोके) संसार में (स्वभावतः ) स्वभाव से ( यूयम्) तुम दृत्तियाँ लोग ( नीचा ) नीच ( पापिन्यः) पापिनी ( योषिताः) स्त्रियाँ ( क्षितौ ) पृथ्वी पर ( कुक्कुरीणाम् ) कुतियों के ( इव) समान ( युष्माकम् ) आप लोगों को ( लज्जा ) शर्म ( कथम् ) कैसे (न) नहीं है (इति) इस प्रकार (उत्तरप्रहारैः ) सती के उत्तर रूपी प्रहारों से (ता: ) वे दूतियाँ ( खलाः ) दुष्टा (वा) मानों (महामन्त्रप्रभावः) पञ्चणमोकार महामन्त्र के प्रभाव से (दुष्टचेतसः ) दुष्टचित्त (सर्पिण्य) सर्पिणि समान ( संहताः) पीडित हुयीं ।
मदनमञ्जूषा नारी जीवन का उपहार क्या है ? सार्थक्य क्या है ? यह स्पष्ट करती हृमी धवल तेल की कुतियों की भर्त्ता करती है। साथ ही नदी धर्म की प्रटल, अकाट्य स्वभाव को स्थापना भी करती है । धर्म अपरिवर्तनीय होता है, बहु सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक आदि किसी भी धारा से प्रभावित होकर बदल नहीं सकता । शील एक पतिव्रत नारी का धर्म है। यह भी कालिक अकाट्य सत्य है। इसका स्वरूप ध्रुव है वह बदल नहीं सकता। सूर्योदय हर एक काल में पूर्व में ही होता है, अस्त भी पश्चिम में ही होता है। उसी प्रकार कन्या का हो विवाह होता है विवाहित पति ही उसे भोगने योग्य हैं, अन्य पुरुष कदाऽपि सेवनीय नहीं हो सकता । अतः वह दूतियों के प्रस्ताव धवलसेठ को सेवन करो" की महानिन्दा करता है। उन कुलटाओं को शील का माहात्म्य बतलाती हूं कि संसार में सर्वत्र स्त्री हो या पुरुष सब का शृङ्गार शीलव्रत है तो भी नारियों का तो विशेषरूप से शीलधर्म अनुपम
ङ्गा कहा है। शीलव्रत विहीन कुलटा नारी कुत्ती एवं गधी समान पराभव और निन्दा की पात्र नीच कहलाती है । जो स्त्री व पुरुष इस लोक में अपने शीलवत का रक्षण करते हैं । वे अपने प्राणों समान निर्मलशील पालते हैं, सदा उसे निर्दोष बनाने का प्रयत्न करते हैं वे नर और नारियाँ देवेन्द्र, सुर असुरादि द्वारा पूज्य होते हैं मनुष्यों की क्या बात ? अरे दुष्टाओ एक तो दूतकर्म ही निद्य है फिर तुम लूतिका मकडी समान यह नीच घृणित कार्य रूप जाल फैलाने के उपाय करते ग्रायी हो यह महान नीचतम और दुःखद कार्य है। तुम सुनो, जरा ध्यान तो दो, यह सेठ मेरे पिता के समान हैं, फिर वह दुर्बुद्धि, विवेकहोन हो क्यों इस प्रकार के पापाय वचन बोलता है। क्या वह नहीं जानता कि "शीलनाश करने वाले व्यभिचारी पुरुष को शीलनाथ का दण्ड नासिका कर्तन, शिरच्छेदन, यादि भोगना पडता है । दुरभिप्रायों इस लोक में हो नहीं, परलोक में भी घोर नरक में जा पडता है वहाँ भी छेदन भेदन, घनों से ताडन-मारन, कूटन बध बन्धनादि दुःखों को भोगता है। पापकर्म के उदय से अग्नि में पकाया जाना, उपाया जाना, भूना जाना प्रादि यातनाओं को भोगता है। लाल-लाल अग्निस्वरूप लोह की पुतलियों से चिपकाया जाता है । वह धवला महा मूढ हैं पापी और नीच, कामवाण से घायल, विवेकशून्य हुआ शराची के समान उन्मत्त हुआ, वेशर्म हो गया है और इस प्रकार के पाप भरे बचन बोलता है। उस पापी की दूती तुम उस से भी अधिक दुर्जन और पापिष्ठा हो, जो स्वभाव से नीचकर्म करती हुयी इस प्रकार निर्लज्ज हो कुत्तियों समान भूमि पर इधर से उधर पूँछ हिलाती, डण्डे खाती टुकडों के लिए घूमती फिरती हो। तुम महा नीच, अधम और पापिनी हो । यहाँ ठहरने योग्य नहीं जाओ यहां से निकल जाओ। इस प्रकार महासती वचन प्रत्युत्तररूप वचनों से ताडित हुयी वे विलखती, विसूरती चुप हो गई । भय से काँप