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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
उठी, स्थिर होकर मौन हो गई मानों सपिणियों के विष भरे फुकारों को महामन्त्रणमोकार के प्रभाव से स्थम्भित कर दिया गया हो। उनको दुध चेष्टाओ का स्थम्भित कर दिया हो। प्रस्तु, धर्म से परास्त हुया अधर्म भाग खड़ा हुआ ।।८४ से ६१॥
"कहावत है विपति अकेली नहीं आती" पूरे दलबल से एक पर एक सवारो लेकर आती हैं। बेचारी मञ्जूषा पर इधर पतिवियोग का पहाड गिरा और उधर वें दूतियां क्षतविक्षत हृदय पर खारा जल सींचने याई । ज्यों-त्यों धर्य बटोर विवेक को सावधान कर उन्हें मुंह को खाकर भगाया। परन्तु क्या इतने मात्र से अशुभोदय संतुष्ट होता ? फिर क्या हुआ देखिये कर्मों का बदरङ्ग -
ततः श्रेष्ठी स्वयं प्राप्तः पापी तां बोधित खलः ।
देहि मे सुरतं भद्रे नो चेत्प्राणान् त्यजाम्यहम् ॥ २॥ अन्वयार्थ-(ततः) दूतियों के पराजित होने पर (पापी) पापात्मा (खलः) दुष्ट (श्रेष्ठी) धवलसेठ (ताम्) उस सती को (बोधितुम) समझाने को (स्वयम् ) आप (प्राप्तः) आमा (भद्रे !) हे सुलक्षणे (मे) मुझे (सुरतम्) रतिभोग (देहि ) प्रदान करो (मो चेत्) यदि नहीं दोगी तो (अहम्) मैं (प्राणान) प्राणों को (त्यजामि) छोडता हूँ।
मावार्थ -"कामाथिनो कुतो लल्जा" कामातुर मनुष्य धर्म, कुल, समाज आदि सबकी शर्म लाज को खो देता है । मोहान्ध धवल नामधारी कृष्णकाक दूतियों द्वारा मदनमञ्जषा के वश में न आने पर स्वयं हो धर्तशिरोमणि वहाँ पहुँचा । प्राचार्य कहते हैं "अन्धादपि महान्धः विषयान्धी कृतेक्षणः" विषय-वासना से अन्धा मनुष्य जन्मान्ध से भी बढ़कर अन्धा है क्योंकि
"चक्षषा अन्धो न जानाति विषयोन्धो न केनचित' आँखों से अन्धा तो मात्र देख ही नहीं सकता किन्तु विषयों के जाले से अन्धा देखता हुआ भो अच्छे-बुरे को नहीं देख सकता। यही हाल था इस कामातर मूर्खराज धवल का। पुत्री समान, पुत्र-बधु जिसे कहा था उस ही के समक्ष निर्लज्ज हो सुरतदान को याचना करता है। क्या यह पशुत्व नहीं ? महानीचता है । वह कहता है हे भद्र ! मुझे पतिरूप में स्वीकार कर मेरी कामवासना की तृप्ति करो। यदि तुम मेरे साथ रति करने को तैयार नहीं हुयी तो निश्चय समझो मैं भी तेरे समक्ष प्राण त्याग कर दूंगा ।।१२।। मदनमञ्जूपा का सम्यग्ज्ञान पूर्ण जाग्रत है । वह दु:खी है पर संकट में किं कर्तव्य विमूढ नहीं है, यही तो सम्यग्दृष्टि का साहस है। वह निर्भय, वीरता पूर्वक योग्य उत्तर देती है