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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] पारोहन कर महोत्सव.) महान उत्सव पूर्वक, (अपि) और भी (जय कोलाहल ) जय-जय घोष (निस्वनः) ध्वनि के साथ (चजच्चामर) चञ्चल चमर दोरते, (सच्छत्रध्वजाद्य :) उत्तम छत्र, पताकामा से (परिमण्डितम) परिवेष्टिा कर (नानाबादिन) अनेकों बाजों के (सन्नादै: मधर शब्दों से सहित (तराम) विविध (दानसम्मानभिः) दान और सम्मान सहित (रम्यम ) सुसज्जित (पुर) द्वीप में (समानीय) ससम्मान लाकर (सादरम् ) आदर सहित (गृहे। घर में (संस्थाय) विराजमान कर पुनः। कर (नामसंयुक्तम्) दोनों पत्नियों सहित (रत्नाद्य ) रत्नादि द्वारा (समपूजयत्) सम्मानित किया । ___ भावार्य-धनपाल महाराज श्रीपाल से क्षमा कराते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं हे प्रभो, आप सुमेरुपर्वत से भी अधिक उन्नत, महामना, स्थिर और गम्भीर हैं। सागर से भी अधिक उदार, क्षमागुणों से परिपूर्ण क्षमा के सागर ही हूं। 1 प्रापका शीलसरोवर महान उज्ज्वल और निर्दोष है, शील सलिल प्रवाह से सिन्ध को भी तिरस्कृत कर दिया। आप कूल पूर्णत: शुद्ध और निर्दोष हैं । चन्द्रमा यद्यपि उज्ज्वल हैं, परन्तु उसके मध्य को कालिमा से स्वयं हो कल वानी है अर्थात् सदोष है किन्तु आपने अपने पाबन कुल से उसे भी लज्जित कर दिया है, पाप सज्जनों को आह्लाद उपजाने वाले, प्रानन्द करने वाले हो । सर्वोपकारी आपका जीवन अापके कुल की उत्तमता का प्रतीक है । आप श्रो जिनन्द्र भगवान के चरणों की पूजा में महा चतुर पण्डित हैं । अद्वितीय जिनभक्ति और जिनार्चना से सर्व विख्यात हैं । उत्तम-मध्यम, जघन्य पात्रों को सतत दान देने से प्राप द्वितीय दाता कहे जाते हैं । अर्थात् प्रथम श्रेयांश महाराज आहारदान पद्धति प्रारम्भकर दानतीर्थ के कता कहलाये और प्रापने उसी मार्ग का पोपण किया, अतः दूसरा नम्बर प्राप ही का आता है। पर्वत के उदर से अनेकों बहुमूल्य, अमोघ रत्नों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार आप से भी परोपकार नीति, क्षमा, दया आदि अनेकों गुणरत्नों की उत्पत्ति हुयी है, हो रही है। इस प्रकार सुन्दर, मनोरम, सौभाग्यवर्द्धक शब्द समूहों से सम्मान्य करके भक्ति पूर्वक उस परम गुणमण्डित श्रीपाल को प्रार्थना की कि हे भव्योत्तम मुझ पर कृपा करो, हे उदारमना ! हे क्षमाशील ! मेरे अपराधरूपी पापसमूह रूप धूली को क्षमारूपी जल से प्रक्षालित करने हेतु मेरे नगर में प्रवेश कीजिये। आप ही मेरे इस घनघोर भ्रम रूप मिथ्यानपान्धकार को नाश करने के लिए ज्ञानसूर्य हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार के समधर कोमल, विनय भक्तियुत वाक्यों से क्षमा कराई । अत्यन्त गाढ प्रीति से सतत विनम्र प्रार्थना से उसे प्रसन्न किया । इस प्रकार क्षमा कराकर, नानाप्रकार के अनेकों प्रकार के वस्त्राभूषणों से अत्यन्त सम्मानित कर उत्तुङ्ग गजपर प्रारूत कर नाना प्रकार जय-जय घोष शब्द करते हए, चञ्चलचमर, उज्जवल छत्र, ध्वजादि से मण्डित कर, नानाप्रकार के वादित्रों की ध्वनि के साथ, अनेकों प्रकार के दान-सम्मान आदि सहित लाया । अत्यन्त रमणोक सुसज्जित पुर में लाकर, उच्चस्थान पर विराजमान कर पुनः दोनों पत्नियों सहित उसकी पूजा की, सम्मान किया ।।१६६ से १७७।। एवं सदा स्वपुण्येन स श्रीपालो भटोत्तमः । राजादिभिस्समभ्यय॑ यससा व्याप्तदिड्.मुखः ॥१७८।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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