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________________ ३३४] [ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छे सजातो भो महाभय्याः सुपुण्यात्किं न जायते ? तस्मात् भव्यं सदाकार्यं सुपुण्यं परमादरात् ॥ १७६ ।। श्रन्वयार्थ -- ( एवं ) इस प्रकार ( स ) बह (श्रीपाल : ) श्रीपाल (भटोत्तमः) श्रेष्ठतम सुवीर ( स्वपुण्येन) अपने पुण्योदय से ( राजादिभिः ) राजा, मन्त्री, आदि द्वारा (समro) सम्यक् अर्चनीय होकर ( यससा) कीर्ति द्वारा (दिङ्मुखः ) दशों दिशाओं को (व्याप्तः ) करने वाला ( सञ्जात) हुआ, ( भो ) हे ( महाभव्याः ) महाभाग भव्योजनों! ( सुपुण्यात्) पुण्यानुबन्धी पुण्य से (कि) क्या ( न जायते) नहीं प्राप्त होता ? अर्थात् सब कुछ मिलता है ( तस्मात् ) इसलिए ( भव्यः ) भव्यजनों द्वारा ( परम ) अतिशय ( आदरात्) आवर से ( सदा ) निरन्तर (सुपुण्यम् ) शुभ रूपपुण्य ( कार्यम् ) करना चाहिए । भावार्थ यहां आचार्य श्री सम्यक्त्व पूर्वक पुण्यार्जित करने का फल बतलाने हुए उपदेश दे रहे हैं। देखो ! महाराज कोटिभट श्रीपाल वीराग्रणी तो था ही, किन्तु अपने निर्मल पुण्य से ही वह विपत्तियों से बाल-बाल बचता गया और राजा प्रजा सभी से सम्मानित पूज्य हुआ | आदर का पात्र वना यहीं नहीं उसका स्वच्छ निर्मल यश दशों दिशाओं में सर्वत्र व्याप्त हो गया । धवल कीति सर्वत्र व्याप्त हो भव्य प्राणियों को जाग्रत करने लगी। इसीलिए आचार्य श्री लिखते हैं कि हे भव्यात्मा सत्पुरुषों ! आप निश्चित समझो कि सम्यक्त्व पूर्वक उपार्जित पुण्य संसार का कारण कभी नहीं हो सकता, अपितु सांसारिक वैभव प्रदान कर परम्परा से मुक्ति का ही साधक बनता है इसलिए आप अत्यन्त उत्साह से, प्रयत्नपूर्वक आदर से उत्तम पुण्यार्जन करो। पुण्य स्वर्ग का सोपान तो साक्षात् है ही परम्परा से मोक्ष का भो कारण है साधक है । अतः पुण्यार्जन अवश्य करें ।। १७८ १७६ ।। पुण्यं श्रमज्जिनेन्द्राणां पादपद्मद्वयार्चनम् । पात्रदानं गुणाधानं व्रतं शीलोपदासकम् ।। १८०॥ तथा तत्र जगत्सार जैनधर्मप्रभावता । भव्यानां परमानन्ददायिनी समभूत्तराम् ॥१८१ ।। श्रन्वयार्थ - (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम्) श्रीमज्जिनेन्द्रभगवान के ( पादपद्मद्वय ) चरणकमल युग्म की ( श्रर्चनम् ) पूजा ( पात्रदानम् ) सत्पात्रदान (गुणव्रत ) श्रेष्ठव्रतों का ( आधानम् ) धारण करना, ( शीलः) शीलाचार ( उपवासकम ) उपवास करना (तथा) तथा (तत्र ) उनके साथ ही (जगत्सार) संसार में सर्वोत्तम सारभूत ( जैनधर्मप्रभावना) जिनधर्म की प्रभावना करना ( भव्यानाम् ) भव्यजीवों को ( परमानन्ददायिनी ) उत्कृष्ट ग्रानन्द का दाता (पुण्याम् ) पुण्य (समभूत्तराम् ) ही होता है । अर्थात् यही पुण्य है । भावार्थ -- भव्यात्मा श्रावकों का पुण्य क्या है ? अथवा पुण्यार्जन का मार्ग क्या है। यह यहाँ स्पष्ट किया है । उभय लक्ष्मी के अधिपति श्रीपति श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा करना,
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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