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________________ पण्य श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] [३३५ सामाधना में प्रवृत्त उत्तम अलि मनि अनगार. यति तथा आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकादि उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देना पुण्य है । यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है। पूजा, दान पुण्यात्रव के कारण हैं यहाँ उन्हें ही पुण्य कहा है। इसके साथ ही पांच अणु व्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाप्नतों का धारण करना, शीलवत पालन करना, उपवासादि करना संसार में सर्वोत्तम सारभूत जिनधर्म को प्रभावना करना अर्थात् विशेष पूजा, पञ्चकल्यागादि प्रतिष्ठाएँ, महाविधानादि द्वारा जिनशासन की वृद्धि करना, प्रकाशन करना कराना इत्यादि केहेत हैं साधन हैं। भव्यजीवों को ये क्रियाएँ परमानन्द प्रदान करने वाली होती हैं। अर्थात् परम्परा से मुक्तिदायिनी होती हैं। क्योंकि शुभपरिणामों के साथ साथ ये क्रियाएँ राग त्याग की कारण होने से बीतरागभाव को भी जाग्रत करती हैं जिससे संवर और निर्जरा भी होती है ।।१८० १८१।। अब पुनः कथा चलती है प्राक् श्रीमदनमञ्जूषा तदास्य चरणाम्बुजी। नत्था ह्य पाविशद्धत वचसासिने मुदा ॥१८२॥ अन्वयार्थ--(तदा) तब. राजा द्वारा सम्मानित होने पर (भत्तुं वचसा) पति की आज्ञानुसार (श्रीमदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषा (अस्य ) श्रीपाल के (चरणाम्बुजौ) दोनों चरणकमलों में (प्राक् ) पहले (मुदा) अानन्द से (नत्वा) नमस्कार करके (हिं) पुन: (असिने) आधं आसन पर (उपाविसत ) बैठ गयी । भावार्थ-- राजा ने दोनों पत्नियों सहित श्रीपाल का यथोचित आदर सत्कार किया। पुनः श्रीपाल को सिंहासन पर प्रारूट किया । तब श्रीपाल ने अपनो पूर्वपल्ली मदनमञ्जूषा से प्रेमपूर्वक अपने साथ बैठने का आदेश किया। पति वचनों के अनुसार उस पतिव्रता ने आमोद AN ५ . FEE: . . A
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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