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________________ २२०] [ोपान चरित्र तृतीय परिच्छेद पञ्चनमस्कार मन्त्र सतत् जपते रहना चाहिए। जिससे आप सदा सुखी बने रहेंगे । और भी कहती है स्मर्तव्या जननी नित्यं दासिका चाहकं सदा । चतुविधं महादानं पुजनञ्च जिनेशिनाम् ॥ २८ ॥ अन्वयार्थ - - हे देव ( नित्यम् ) सदैव ( जननी) नाता जी का (च) और ( अहम् ) मुझ ( दासिका) दासी का ( स्मर्त्तव्या ) स्मरण रखना ( सदा ) प्रतिदिन ( जिनेपिनाम् ) जिनेन्द्र भगवान की (पूजनम् ) पूजा (च) और ( चतुविभ्रम्) चारों प्रकार का दान ( महादानम् ) महादान ( कर्तव्यः ) करते रहना चाहिए । कर्त्तव्यं भो सदानाथ रक्षणं च निजात्मनः त्वं सर्व सर्वदा दक्षो जानास्येव हिताहितम् ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ - ( भी ) हे (नाथ) नाथ ( सदा ) हमेशा ( स्वम् ) आप ( निजात्मनः ) अपनी आत्मा का रक्षण ( कर्त्तव्यम् ) करना चाहिए (च) और अधिक क्या कहूं आप ( सर्वम) सब कुछ ( हिताहितम) हित और अहित को ( सर्वदा ) हमेशा ( दक्ष : ) कुशल हैं (जानासि ) जानते ( एब ) ही हैं । भावार्थ - मदनसुन्दरी कहती है कि हे प्रीतम ! हे नाथ श्राप सर्व कार्य कुशल है । निरन्तर अपनी रक्षा का ध्यान रखें। हित और अहित के याप ज्ञाता हैं मैं क्या समझाऊं ? बराबर सावधानी से कार्य करें । धर्म का रक्षण न्याय का प्रवर्तन करते हुए अपना रक्षण करते रहें । यहाँ विशेष रूप में नारियों को शिक्षा लेना चाहिए। मैंना का आदर्श जीवन अनुकरणीय है । अपने देव तुल्य पति के प्रति कितनी भक्ति, प्रीति और ममता है तो भी उसे सन्मार्ग का उपदेश देती है । धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा करती है। वस्त्राभूषण की मांग नहीं करती। अपितु सतत् षट्कर्मों के पालन की प्रार्थना करती है। जिनेन्द्र पूजा श्री चतुवि संघ को चार प्रकार दानादि करने के लिए उत्साहित करती है । आजकल हमारी बहिन अपने पति के विदेश जाने पर उनसे उस उस देश की अनावश्यक वस्तुओं, गहने-कपड़े आदि की मांग करती हैं । यहाँ तक कि अपनी निजी वेष-भूषा को भूल कर अपने नेचुरल स्वाभा विक सौन्दर्य को नष्ट कर डालती हैं। फैशन परस्ती में पड़कर स्वयं ही धर्म-कर्म विहीन हो जाती हैं फिर पति को क्या धर्म मार्ग पर आरूढ करेंगी ? शील, संयम, चारित्र, सदाचार, लज्जा सहनशीलता नारी के आभूषरण हूँ सौन्दर्य के प्रसाधक हैं न कि बाल कटाना गौं है मुडाना, काली-पीली टीकी लगाना, ओठ रंगना आदि । ये तो और अधिक नैतिक जीवन के पतन के कारण हैं । अतः भारतोय ललताओं को मदनसुन्दरी जवन अनुकरणीय हैं ||२६|| पुनः मदनसुन्दरी अपना निश्चय स्पष्ट करती है
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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