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________________ ५३४ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद लोक में ( रज्जुप्रमप्रधु ) एक राजू प्रमाण चाँड़ा (ब्रह्मान्ते) ब्रह्मलोक के अन्त में (पञ्च रज्जुः ) पाँच राजू (च) ओर ( मस्तके ) अन्त में ( रज्जुमानभाक् ) एक राजू प्रमाण है (अयम्) यह ( भेदः) मापभेद ( पूर्वापर ) पूर्व-पश्चिम ( विभागत) विभाग की अपेक्षा ( समुदाहृतः ) उद्धृत किया है (दक्षिण-उत्तर प्रपेक्षा ( सर्वतः ) सर्वत्र ( रज्जुसप्तक: ) सात रज्जु प्रमाण (मल) माना गया है ( उत्सेधः ) ऊँचाई ( चतुर्दशभिः ) चौदह ( रज्जुमि: ) राजू ( परिकीर्तितः ) कहा गया है (अष्टभूमिभाक् ) प्राठ भूमि वाला यह (च) और (भि) छन् (जीवादिभिः) जीवादि ( द्रव्यैः ) द्रव्यों से ( सम्भृतः ) भरा हुआ ( त्रिचत्वारिंशत) तेतालीस (सार्द्धम् ) सहित ( शतत्रयम् ) तीन सौ ( रज्जूनाम ) राजू का ( घनाकारेण ) घनाकार रूप से (च) और (त्रिभिः) तीन (वार्तः) वायुओं से (वेष्टितः ) घिरा हुआ ( संज्ञोपः ) जानना चाहिए (च) और (सप्तश्वभ्रंषु) सात नरकों में (नारकाः) नारकी जीव ( सदा ) हमेशा (पापेन) पाप द्वारा ( पच्यन्ते) पकते हैं - दुःखी होते हैं (मध्य) मध्यलोक में ( मनुष्याध्याः) मनुष्य एवं निर्यञ्च (स्वर्गषु) स्वर्गो में (सुरसत्तमः) श्रेष्ठ देव ( तस्य ) उस लोक के ( मस्तके) प्रभाग पर (दुष्टाष्टक निरमुकाः) दुष्ट आठ कर्मों से रहित (प्रसिद्धाष्टगुणोउज्वलाः) नित्य प्रसिद्ध आठ गुणों से शोभायमान (त्रैलोक्य मङ्गलाः ) तीनों लोकों में मङ्गल स्वरूप (सिद्धा:) सिद्ध भगवान ( तिष्ठन्ति ) निवास करते हैं ( येषाम) जिनके ( स्मरण: मात्रेण) स्मरणमात्र से ( पापसन्तापसञ्चयः ) पाप और संताप का समूह ( क्षणार्द्धतः) निमिष मात्र में (बा) जिस प्रकार ( भास्करेण ) सूर्य द्वारा (उच्च) घोर (तमः) अन्धकार (क्षयम् ) नाश को प्राप्त (यान्ति) हो जाते हैं (अतः परम् ) इस लोक के बाहर ( सर्वशुन्य स्वभावक : ) पूर्णशून्य स्वभाव वाला (च) और ( अनन्तानन्तकः) अनन्त विस्तार वाला (अलोक: ) अलो काका ( वीरस्वामिना ) महावीर भगवान द्वारा ( सम्प्रकीर्तितः) सम्यक् निरूपण किया गया है । सावार्थ - लोक भावना में ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक का स्वरूप आकारादि का विचार करना चाहिए। यह लोक अधोभाग में पूर्व - पश्चिम में सात राजू चौड़ा है, कम होता हुआ मध्यलोक में एक राजू प्रमाण रह जाता है पुनः विस्तृत होता हुआ ब्रह्मलोक के अन्त में पाँच राजू हो गया है, पुनः घटकर लोकाग्र भाग में मात्र एक राजू रह गया | मोटाई सर्वत्र सात राजू है । ऊँचाई चौदह राजू है । इस प्रकार इसका श्राकार पुरुषाकार हो जाता है । अर्थात् दोनों पाँव माजू-बाजू फैला कर दोनों हाथों को मोड़ कर कटिप्रदेश पर रक्खे, इस प्रकार पुरुष का जो आकार प्राकृति होगी वही तीन लोक का आकार जानना चाहिए । संयंत्र यह चनाकार है । अत: ७ राजू चौड़ा, सर्वत्र ७ राजू मोटा और चौदह राजू ऊंचा है । अतः घनाकार ७ × ७ × ७ = ३४३ राजू प्रमाण है । यह लोकस्वभाव सिद्ध है। अनादि अनिधन है । अकृत्रिम है | इसका न कोई कर्ता है और न कोई संहारक है। इसमें जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल छहों द्रव्य भरे हैं। सर्वत्र इन द्रव्यों का वास है । प्रधोलोक में सात नरक भूमियाँ हैं । ये पापियां को पापकर्म का कटुफल भोगने को जेलखाने स्वरूप हैं । भयंकर दुःखों से व्याप्त हैं। पाप से जीब यहाँ नरकों में पचते रहते हैं अर्थात् अनेकविध भीषण दुःख भोगते हैं । मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यच्त्रों का वास है। स्वर्गों में उत्तम देवगण अपने पुण्य के फल का उपभोग करते हैं। लोक शिखर पर अष्टकर्मो के नाश करने वाले सिद्ध परमात्मा
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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