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________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद हैं । इनकी सिद्धि पांचों इन्द्रियों के दमन करने से होती है। विषय-कषायों के त्याग से होती है। इस प्रकार बार-बार विचार करना निर्जराभावना है। ऐसा जिनदेव ने कहा है। जो भव्यात्मा सांसारिक विषय कवाओं को त्याग भात्मकल्याण के मार्ग पर रह होकर चलते हैं व हो धन्य है ।।६८.६६ ।। आगे लोक भावना का स्वरूप कहते हैं लोकोऽयं पुरुषाकारो वर्तते शाश्वतस्सदा । न केनाऽपि कृतश्चास्य हन्तानव कदाचन ॥७०॥ सप्तरज्जुरधोभागे मध्ये रज्जुप्रमप्रथुः । ब्रह्मान्ते पञ्चरज्जुश्च मस्तके रज्जुमानभाक् ॥७१॥ पूर्दापर विभागेन भेदोऽयं समुदाहृतः । दक्षिणोत्तरयो रज्जु सप्तकसर्वतोमतः ॥७२॥ चतुर्दशभिरुत्सेधो रज्जुभिः परिकीर्तितः । षडभिः जीवादिभिः द्रव्यसंभृतश्चाष्ट भूमिभाक् ॥७३॥ त्रिचत्वारिंशतासाधं रज्जनां च शतत्रयम् । घनाकारेण संज्ञेयस्त्रिभिः वातैश्चयेष्टितः ॥७४॥ सप्तश्वभ्रषु पापेन पच्यन्ते नारकास्सदा । सन्तिमध्ये मनुष्यायाः स्वर्गेषु सुरसत्तमः ॥७॥ मस्तकेतस्य तिष्ठन्ति सिद्धास्त्रलोक्य मङ्गलाः । दुष्टाष्टकर्मनिमुक्ता प्रसिद्धाष्ट गुणोज्ज्वलाः ॥७६॥ येषां स्मरणमात्रेण पाप सन्ताप सञ्चयः । तमो वा भास्करेगोच्चः क्षयं यान्ति क्षणार्द्धतः ।।७७।। प्रातः परमलोकश्च सर्व शून्य स्वभावकः । अनन्तानन्तको वीरस्वामिना सम्प्रकीर्तितः ॥७॥ अन्वयार्थ--(सदा सतत (शास्तम्) चिरस्थायी (यम) यह (लोक) लोक (पुरुषाकारो) पुरुषाकार (वर्तते ) रहता है (अस्य) इस लोक का (के नाऽपि) कोई भी (कृतः) करने वाला (न) नहीं (च) और (न) नहीं (एब) ही (कदाचन) कोई भी (हन्ता) चाश करने वाला है। यह (अधोभागे) अघोभाग में (सप्तरज्जूः) सात राजू है (मध्ये) मध्य
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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