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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
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(जिल्ला) जीतकर (निजं ) अपनी ( शक्तितः) शक्ति से ( तत्र ) वहाँ (श्रेष्ठिनम् ) धवल सेठ को (च) और ( तानू ) दशहजार भटों को ( अमोचयन् छ डाया, बन्धन मुक्त क्रिया (पश्चात् ) तदनन्तर (ते) उन (सुभट) सुवीरों के ( सार्धं ) साथ (सर्व) सम्पूर्ण (तद् ) उसके ( सर्वम् ) सम्पूर्ण ( धनम् ) धन को भी ( आदाय ) लेकर ( यथा ) जिस प्रकार ( सुधी ) बुद्धिमान ( मेघेम्बर) मेघनाद हो ( यशसारम् ) उज्ज्वल कीति के ( समम् ) साथ ( प्राप) प्राय - विजयी हुआ (सत्यम् ) उचित ही है ( भूतले ) पृथ्वी पर (स्व) अपने ( पूर्वपुण्येन) पूर्वभव के पुण्य से (हि) निश्चय से ( कि कि ) क्या क्या ( न स्यात् ) नहीं होगा ?
भावार्थ - शान्त चित्त श्रीपाल अरहंत सिद्ध भक्ति में निमग्न था । प्राकृतिक सौन्दर्य भा निहार रहा था। उसी समय सेठ और उसके साथियों का कोलाहल सुना, अपनी पुकार सुनते ही वह कोटीभट वीरराज सिंहनाद करता हुआ गरजा, उठते ही महा धनुष हाथ में लिया और सिंह जैसे गजयूथ पर आक्रमण कर उन्हें यत्र तत्र भगा दिया इस प्रकार श्रीपाल ने उन दों को कम्पित कर दिया। तुमल युद्ध हुआ । प्रतापी श्रीपाल ने अपने अद्भुत पराक्रम से विजय वैजयन्ती प्राप्त की। महाभट के प्रकोप के सम्मुख कौन टिकता ? उसने सेठ तथा दशहजार सुभटों को वन्धनमुक्त किया। समस्त धन को वापस लाये | धन-जन के साथ यशोपताका फहराता आया । आचार्य कहते हैं सत्य ही है पूर्वोपार्जित पुण्य से जीव को क्याक्या प्राप्त नहीं होता ? संसार में सब कुछ पुण्य से प्राप्त होता ही है। मेधेश्वर के समान इस श्रीपाल का यश चारों ओर प्रसारित हुआ ||८०-८१-८२ ।। ६३ ।।
एकेनतेन ते सर्वो निर्जितास्तस्कराः खराः । सत्यं भानु करोत्युच्चरेकाकी तिमिरं क्षयम् ॥८४॥
अन्वयार्थ -- ( तेन) उस श्रीपाल ( एकेन ) अकेले ने (ते) वे (सर्वे)
सब ( खरा : ) दुर्जन ( तस्करा ) दस्यु (निर्जिताः) जीत लिए (सत्यम् ) ठीक ही है (भानुः ) सूर्य ( एकाकी ) अकेला ही (उच्चैः) घोर ( तिमिरं ) अंधकार को (क्षयम्) क्षय (करोति) कर देता है । भावार्थ- सुर्योदय होते ही रात्रि जन्य तुमुल तिमिर उसी क्षण विलीन हो जाता है । अकेला मार्तण्ड जिस प्रकार घोर अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार उस अकेले बीर ने उन सारे तस्करों (चोरों) को जीत लिया ||८४ ॥
तदा श्रेष्ठी विलोक्योच्चैस्तदीयं पौरुषं परम् । fadtisस्मै मुदानेकध्वनतूर्यादिकव्रजैः ।। ८५ ।। मणिकाञ्चन वस्त्रादीन सारभूताम्बरादिकान् । श्रीपालं स्वजनैर्सार्धं शशंसेति भटोत्तमम् ॥ ८६ ॥ धीमान् पुरुष सिंहस्त्वं धन्योवीराग्रणीमहान् । महाबलो महातेजास्त्वत् समो न परो भटः ॥ ८७॥